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बुधवार, 21 अप्रैल 2021
आर्थिक आधार पर आरक्षण का सच
सवर्ण आयोग का सच
सवर्णों को दरकिनार कर सत्ता में आने वालों का दलाल बना सवर्ण आयोग
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उपसम्पादक, प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द, सुनामी टाइम्स, फरवरी २०१४ |
७४ के आन्दोलन के बाद जैसे-जैसे समय बीतता गया सत्ता में सवर्णों की भागीदारी का प्रतिशत घटता गया। जगन्नाथ मिश्र की सरकार के बाद जितनी भी सरकार बनी सवर्णों की लाशों पर समाधि का खेल ही साबित हुआ है। लालू सरकार में देखे गए भूराबाल के सफाये का सपना नीतिश कुमार पूरा कर रहे हैं। उन पर किसी को शक न हो इसके लिए अपने मातहत पिट्ठुओं की जमात को सवर्ण आयोग का लम्बरदार बना कर सवर्णों को मुर्ख बनाने का काम शुरू कर दिया है। हालांकि इस आयोग का गठन करवाते समय ही मुख्यमन्त्री ने कहा था कि समता मूलक समरस समाज की स्थापना के लिए इस आयोग का गठन किया गया है। लेकिन ऐसा समाज बनेगा तब ही न इसके स्थापना का उद्देश्य पूरा होगा।
"ऊँची जातियों के लिये गठित आयोग को गाँव से लेकर राजधानी तक के लोगों से सम्पर्क कर उनकी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करना चाहिए।"
न्यायमूर्ति डी. के. त्रिवेदी की अध्यक्षता में गठित सवर्ण आयोग के गठन के समय ही नीतिश कुमार ने कहा था कि "ऊँची जातियों के लिये गठित आयोग को गाँव से लेकर राजधानी तक के लोगों से सम्पर्क कर उनकी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करना चाहिए।" लेकिन उनकी सोची-समझी साजिश का ही परिणाम है कि सवर्ण आयोग के सदस्य से लेकर पदाधिकारी तक में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने सवर्णों के अधिकार के लिए आन्दोलन करने वाले किसी संस्था या समूह का प्राथमिक सदस्य भी रहा हो। जिसमें सवर्णों के लिए के लिए कोई भावना तक उत्पन्न हो सका वैसे लोगों के बूते सवर्णों के स्वाभिमान की रक्षा करने का ड्रामा शोषित सवर्णों का मजाक उड़ाना नहीं तो और क्या है?
सवर्ण आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति डी. के. त्रिवेदी हों या इस आयोग के सदस्य अब्बास फरहत या पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी जी के खाश सागिर्द संजय मयूख! ये सभी ऐसे लोग हैं जिन्होंने न तो गरीबी देखी है और न ही गरीबी-बेरोजगारी से जूझते सवर्णों की पीड़ा को महसूस किया है। जिसे दर्द का एहसास ही नहीं है वह मर्ज क्या तलाशेगा? यही कारण है कि सवर्ण आयोग के गठन के बाद से आज तक ये शतरंजी मोहरें सवर्णों के अधिकार के लिए एक भी योजना बनाने में नाकाम रही है।
समता मूलक समरस समाज की स्थापना के उद्देश्य से सरकारी सेवाओं में जातीय आरक्षण हटाने के लिए चल रहे एक न्यायिक मामले में अनुसूचित जाति एवम् जनजाति कल्याण विभाग के द्वारा दिए गए प्रतिवेदन के आलोक में सर्वोच्च न्यायालय ने जिस समय आरक्षण को पूर्ववत् चालू रखने का निर्णय सुनाया था, उस समय भी सवर्ण आयोग के कठपुतली सदस्य मूक दर्शक बने रहे। ये लोग न तो जातिय विद्वेष उत्पन्न करने वाले उक्त प्रतिवेदन का विरोध किये और न ही शोषित सवर्णों के पक्ष को मजबूती से रखने के लिए कोई ठोस और प्रमाणिक प्रतिवेदन प्रस्तुत कर सके।
सवर्णों के खिलाफ़ आने वाले इस निर्णय से हमें यह नहीं समझना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय! सवर्णों के खिलाफ़ है, बल्कि सवर्ण विरोधी निर्णय लाने का मूल कारण अनुसूचित जाति और जनजाति कल्याण विभाग के कार्यों तथा उद्देश्यों के प्रति ईमानदारी पूर्वक समर्पित होकर काम करने वाले वे पदाधिकारीगण हैं जो एम. नागराज एवम् अन्य बनाम सर्वोच्च न्यायालय के आलोक में दिए गए अपने प्रतिवेदन में मजबूती के साथ अपनी बात को रख कर न्यायालय को अपने पक्ष में निर्णय लेने के लिए बाध्य कर सके।
जातिय आरक्षण का समर्थन करने वाले उस विभाग ने अपने प्रतिवेदन में स्पष्ट रूप से यह लिखा था कि "वर्तमान आरक्षण के विधान को विलोपित करने से एससी-एसटी और पिछड़ा वर्ग के लोगों की सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व, दक्षता और सामाजिक विकास पर बूरा असर पड़ने की सम्भावना है। अतः अनुसूचित जाति (एससी) एवम् अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सरकारी सेवकों को पूर्व की भांति आरक्षण एवम् परिणामी वरीयता मिलता रहे।"
SC-ST कल्याण विभाग, महादलित विकास मिशन और पिछड़ा वर्ग आयोग को राज्य सरकार ने अनुदान दिया मगर सवर्ण आयोग को कोई अनुदान नहीं मिल पाया।
अनुसूचित जाति एवम् अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के द्वारा मजबूती से अपना पक्ष रखने का ही परिणाम है कि पूर्व निर्धारित आरक्षण को पूर्ववत् लागू रखते हुए राज्य सरकार! महादलित विकास मिशन को अनुदान के रूप में २०७.७५ करोड़ रुपये ,अनुसूचित जाति एवम् जनजाति आयोग के अध्यक्ष, सदस्य एवम् कर्मचारियों को वेतन आदि के लिए १.९० करोड़ रुपये तथा पिछड़ा वर्ग आयोग के लिए १.४० करोड़ रुपये अनुदान को स्वीकृत कराते हुए योजनाओं को वर्ष २०१४-१५ तक चालू रखने की मंजूरी दे दी थी। जबकि गरीब सवर्णों के उत्थान के लिए सवर्ण आयोग को कोई अनुदान नहीं मिल पाया।
इसके लिए सरकार से ज्यादा सवर्ण आयोग के पदाधिकारी बनें सवर्ण जाति के ही वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने सवर्ण जाति के गरीब-गुरबों के अधिकार के लिए आवाज़ उठाने के बजाय सत्ता में आने के लिए पहले से आरक्षण लेने वाले जातियों में अपनी लोकप्रियता घटने की आशंका के डर से मौन रहना ही बेहतर समझा। कहते हैं कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में सवर्ण आयोग के द्वारा गरीब सवर्णों के अधिकारों के लिए अपना पक्ष नहीं रख पाने के कारण बिहार सरकार ने सवर्ण आयोग के सदस्य पदाधिकारियों को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर के सवर्ण आयोग को भङ्ग कर दिया था।
सवर्ण जाति के लोगों को भी एससी-एसटी की तरह सभी सरकारी सेवाओं एवम् योजनाओं में समान रूप से प्रतिनिधित्व हो, सवर्ण जाति के लोग गरीबी, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, बेघर, भूमिहीन और असहाय होते हुए भी सरकार की जात-पात आधारित कानून के कारण सरकारी मदद नहीं मिल पाने के कारण अन्य जातियों की अपेक्षा ज्यादा आत्महत्या करते हैं। जबकि एससी-एसटी वर्ग के साधन-सम्पन्न लोगों को भी आरक्षण के पक्षपातपूर्ण कानून के कारण देश का खजाना ५०% अनुदान के नाम पर एससी-एसटी कहलाने वाले लोगों को दे-दे कर सवर्णों के खिलाफ़ खुलेआम अभियान चलाया जा रहा है।
ग्रामीण परिवहन विभाग के द्वारा ही हरेक साल बेरोजगार लोगों को रोजगार दिलाने के लिए सभी पंचायतों में से दस लोगों को दोपहिया वाहन से लेकर दसपहिया वाहन तक खरीदने के लिए ५०% अनुदान देता है। इसके लिए इच्छुक लोगों में से ६ एससी-एसटी जाति के लोगों को और ४ अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों का ही चयन कर के सवर्ण जातियों से भी वसूले गए टैक्स की रकम से अर्जित राजकोष में से खरीदे गए वाहनों का ५०% मूल्य सरकार देता है। अनुदान कहलाने वाला यह राशि सरकार आरक्षण पाने वाले लोगों को वाहन खरीदने के लिए दे देता है लेकिन भूखमरी से निजात दिलाने के लिए सवर्ण जाति के लोगों को एक समय की रोटी तक नहीं देता है।
इसी अन्याय के कारण जन मुक्ति संघर्ष समिति के तत्वावधान में सनातन संस्कृति अनुसन्धान एवम् जागृति परिषद् नामक संघ गठित कर के बिहार के दलित जातियों के बीच यह जानने के लिए सर्वे करवाया था कि असली जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ मिल रहा है कि नहीं। उस सर्वेक्षण के दौरान माउन्टेन मैन के नाम से प्रसिद्ध दशरथ माँझी के गाँव गहलौर, वजीर गंज और सकरदास नवादा के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों सहित पटना सिटी और गुलज़ार बाग के झुग्गियों में रहने वाले लोगों से भी हमारे वोलेंटियर्स ने घर-घर जाकर एक फार्म भरवाया था। उस फार्म में पूछे गए वस्तुनिष्ठ सवालों के जवाब में एससी-एसटी जाति के ८५% से भी अधिक लोगों ने सरकार के द्वारा गरीब लोगों की उपेक्षा करने की शिकायत करते हुए गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बनाने की इच्छा जताई थी।
उस रिपोर्ट के सुनामी टाइम्स नामक स्थानीय अखबार में प्रकाशित करवाने के तत्काल बाद सवर्ण फैंस क्लब का गठन कर के गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दिलाने के लिए गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बनवाने की माँग को लेकर जन-जागरूकता अभियान शुरू कर दिया था। उसी दौरान मासिक पत्रिका "सुनामी टाइम्स" और साप्ताहिक समाचार पत्र "सुनामी एक्सप्रेस" के सम्पादक अजय दूबे ने मुझे सम्पादकीय सहायता के लिए आमंत्रित कर के अपने समाचार समूह में प्रूफ़रीडिंग और उपसम्पादन का दायित्व दिया था। उस पत्रिका से जुड़ते ही सवर्ण जातियों के द्वारा संचालित कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा मुझे आमंत्रित किया जाने लगा था। जिसका लाभ उठाते हुए गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बनवाने के लिए वर्ष २०१४-१६ में सवर्णों के साथ होने वाले अत्याचारों पर आधारित समाचारों को ही ज्यादा से ज्यादा प्रकाशित करवाया था। उस दौरान सोशल मीडिया के द्वारा भी गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बना कर सवर्ण आयोग का गठन करवाने की माँग करने के लिए जन-जागरूकता अभियान चलाता रहा। लेकिन सवर्ण आयोग के सदस्य और पदाधिकारी चुप्पी साधे सवर्णों के साथ होने वाले अत्याचारों को देखते हुए भी सत्ताधारी नेताओं की चरण वन्दना करते रहे।
नेताओं की चरण वन्दना करने में माहिर होने का लाभ यह हुआ कि सवर्ण आयोग के सदस्यों में से सबसे ज्यादा चुप्पी साधने वाले सदस्य की चमचागिरी से खुश होकर भाजपा के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी जी ने संजय मयूख को बिहार विधान परिषद का सदस्य बना दिया। जबकि सवर्णों के लिए यदा-कदा आवाज़ उठाने की कोशिश करने वाले सवर्ण आयोग के सदस्य सुभाष चन्द्र सिंह जैसे लोगों को दूध में गिरी हुई मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया। जबकि ये शख्स भाजपा नेता संजय मयूख से ज्यादा लोकप्रिय और अनुभवी थे। वर्ष २०१८ में जब मेरी इनसे मुलाकात हुई थी तब ये ७४ वर्ष के थे। आज ये जीवित हैं या नहीं इसकी कोई सूचना नहीं है, मगर भूमिहार जाति के सुभाष चन्द्र जी! पटना के विक्रम थाना क्षेत्र के मूल निवासी और भारतीय जनता पार्टी में पटना ग्रामीण के जिलाध्यक्ष होने के साथ स्थानीय लोगों में इनकी अच्छी पकड़ थी। सुभाष जी ने ही मुझे बताया था कि इनके साथ सवर्ण आयोग के सभी सदस्यों और पदाधिकारियों को इस्तीफा देने के लिए मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने मजबूर किया था। सभी सदस्यों से इस्तीफा लेने के बाद के बाद सवर्ण आयोग का नाम बदल कर "उच्च जातियों के लिए राज्य आयोग" कर दिया गया। लेकिन भंग कर दिये गये कमिटी का पुनर्गठन नहीं किया गया। बिहार में सवर्ण समाज के लिए इससे ज्यादा कुछ भी नहीं किया है बिहार सरकार ने। भारत सरकार की भी यही दशा है। उसने गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बना तो दिया मगर उस कानून को राज्य सरकार की इच्छा के बगैर लागू नहीं करवा सकती है। राज्य सरकारें इस कानून को अपने राज्य में लागू करेगी या नहीं करेगी, यह राज्य सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है। राज्य सरकारें इसे अविलम्ब लागू करे इसके लिए सवर्ण समाज को एकजुट होकर अपने राज्य सरकारों पर दबाव बनाने की जरूरत है। तभी आपकी स्थिति सुधरेगी। अन्यथा वह समय बहुत जल्द आने वाला है जब तुम्हें भीख भी नहीं मिलेगी।
मंगलवार, 8 जुलाई 2014
Introduction of KCIB
- इसका गठन सभी जाति, पंथ, लिंग और सम्प्रदाय के असली जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ दिलवाने के उद्देश्य से जन-जागरूकता अभियान चलाने के लिए किया गया है। हमारा उद्देश्य न सिर्फ़ गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बनवाने का प्रयास करना है बल्कि हरिजन एक्ट और महिला उत्पीड़न कानून के बढ़ते दुरुपयोग के कारण प्रताड़ित लोगों के मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा हेतु पुरुष आयोग के साथ सवर्ण आयोग का गठन करवाना भी है।
- भारतीय संविधान में वर्णित समता के अधिकारों से सम्बन्धित कानून की धारा में शामिल उपधारा 16(4) एवम 16(4क) को विलोपित करवाकर राष्ट्रीय एकता में बाधक बनने वाले कानूनों को खत्म कर के भारतीय समाज के हर वर्ग को समानता का अधिकार दिलाना भी है।