लेखक : प्रसेनजीत सिंह
माँ-बाप की सेवा करने वाले को आशिर्वाद ही मिलता है ऐसी बात नहीं है। सत्यानन्द ने तो अपने माँ-बाप की खूब सेवा की थी, मगर उसके घर पर आये दो साधुओं ने तीसरी कक्षा में पढ़ रहे सत्यानन्द की ओर ईशारा करते हुए उसकी माँ से जैसे ही कहा कि "यह नाग अपने माता-पिता के वृद्ध होने पर तलवार से गर्दन काट कर हत्या कर देगा। अपनी सुरक्षा चाहती हैं तो इसे मुझे दे दीजिए।" उस समय तो उसकी माँ ने उस साधु की बात पर विश्वास नहीं किया था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे सत्यानन्द के प्रति उसकी माँ के मन में नफ़रत का भाव बढ़ता जा रहा था। अपने बेटे के हाथों अपनी होने वाली हत्या की कल्पना कर के उसके प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी। सत्यानन्द के पिता जो भारतीय रिजर्व बैंक में उस समय सहायक कोषपाल थे, घर में पैसे की कमी नहीं थी, फिर भी उसे शिक्षा-दीक्षा रोक कर घर की सेवा में लगा दिया गया था। राजधानी पटना में रहते हुए भी नजदीकी गाँव में रहने वाले यादवों के लड़कों के साथ दिन भर गाय चराता, घर के बगल में स्थित आटा चक्की की दुकानों के बन्द रहने पर भी उसे गेहूं पिसवा कर ही लौटना पड़ता। पटना में स्ट्राइक रहने के कारण सभी मीलों और दुकानों के बन्द रहने पर भी चाहे जहाँ से भी हो गेहूंँ पिसवा कर ही लौटना पड़ता था। अन्यथा बिना काम पूरा किये वापस लौटने पर अपनी माँ और बड़े भाई से मार खाने के लिए तैयार रहना पड़ता था। पटना के लगभग सभी मील वाले उसकी इस मजबूरी के बारे में जान गये थे, इसके कारण कोई न कोई खतरे मोल लेकर उसकी मदद कर ही देता था। वापस लौटने पर घर से कुछ दूरी पर स्थित कुँए से पानी भर-भर कर नाद और ड्राम को भरना पड़ता, कुएं से पानी भर-भर कर ही बन रहे मकान की दीवारों को पटाना पड़ता। इसके बाद भी कोई न कोई बहाना बनाकर खाना खाने से पहले, खाना खाते-खाते और खाना खाने के बाद भी पिटाना ही पड़ता था। यही उसका रोज़ का नियम बन गया था।
उसे नमकीन के बजाए मीठा भोजन ज्यादा पसन्द था। इसके बावजूद घर में मिठाई आदि आने पर उसकी माँ उसे सत्यानन्द से छुपा कर रखती थी। कई बार तो उसके सामने ही अपने अन्य बच्चों और घर में आये हुए रिश्तेदारों में उन मिठाईयों को बाँट देती, लेकिन उसे यह कह कर भगा देती थी कि "तू हम्मर गर्दन काटबेऽ आउ हम तोरा मिठाई खिलइयऊ"?.. और उसे फिर किसी काम में फँसा देती थी। लेकिन जब कोई मिठाई खराब हो जाता तो बड़े प्रेम से उसे अपने पास बुलाती और कहती, "तोरा मिठाई अच्छा लग हउ नऽ?.. ले, ओन्ने जाके खा लेऽ। न तऽ कोनो छीन लेतउ।" उस मिठाई से आ रही दुर्गन्ध के कारण सत्यानन्द वह मिठाई नहीं लेना चाहता तब उसकी माँ कहती, "तोरे ला नुका के रखले हलियऊ। लेकिन यादे हेरा गेलियऊ हल बेटाऽ। जादे खराब न हबऽ, बस ऊपर से पोछ दीहऽ।" कह कर खुद ही अपनी मिठाई को पोछ देती और कहती -" बढ़ियां हो गेलई नऽ, लऽ अब खा लऽ।"
खराब हो कर जाला लग चुके मिठाई को मुँह से लगाते ही मुँह का स्वाद खराब हो जाता था। लेकिन अपनी माँ की झूठी ही सही मगर उसके क्षणिक प्यार का सुख भोगने के लिए वह उस मिठाई की कड़वाहट को भूल कर के माँ की ममता का प्यास मिटाने के लिए उस मिठाई के साथ माँ के द्वारा दिये गये सभी रोटियों को सुबक-सुबक कर रोते हुए खा जाता था। उसकी आँखों से आँसू इसलिए नहीं निकलते की उसकी माँ उसे न खाया जाने वाला चीज़ खाने के लिए मजबूर कर रही है, बल्कि वह यह सोच कर रोता था कि उसने कौन सा गुनाह किया है, जिसके कारण उसकी माँ भी उससे नफ़रत करती है।
उस समय उसके घर में संजय नामक जो नौकर था उसे वेतन और तीनों समय भोजन के अलावा साल में एक सेट नया कपड़ा भी दिया जाता, जबकि बेचारा सत्यानन्द को अपने पिता और भाईयों के छोड़े हुए पुराने कपड़े ही दिए जाते थे। यहाँ तक कि उसे अपने छोटे भाईयों के भी छोड़े हुए कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया जाता था। उस घर में उसकी जो औकात थी, उसे जानने के बाद सत्यानन्द के ननिहाल से आया हुआ घर का नौकर और किरायेदार भी नाजायज़ फायदा उठाते थे। साधुओं के द्वारा कही हुई भविष्यवाणी के भय से उसकी माँ के मन में बैठा हुआ विश्वास झूठा साबित हो जाए, सिर्फ इसके कारण वह घर के सभी जुल्मों को चुपचाप सहते हुए अपने जैसे मजबूर और दुखी लोगों की बाहर में मदद करता था।
एक दिन अचानक बिना कोई पूर्व सूचना के उसकी तलाश करते हुए बिहार पिपुल्स पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के प्रदेश सचिव प्रमोद सिंह और प्रदेश उपाध्यक्ष राजकुमार सिंह अपने समर्थकों के साथ सत्यानन्द के घर चले गए, तब उनके साथ चल रहे लोगों के हाथों में राइफल्स देखते ही सत्यानन्द की माँ ने काँपते हुए उससे कहा था कि "तू मर काहे न जा हे रेऽ। काऽ कर के अइले हे, कि घर में डकैत घुस्सल जाइत हऊ?" लेकिन जैसे ही उन लोगों के बारे में सत्यानन्द के पिता को पता चला उन्हें आदर पूर्वक घर में बैठाकर चाय-नाश्ता करवाने लगे थे।
घर में ऐसे लोगों के आने से वह काफी दहशत में था। उसे इस बात का भय था कि, इन लोगों के जाते ही उसकी जम कर धुनाई होगी। लेकिन उसे अपने पास बुला कर पीठ ठोकते हुए जिस समय उसके पिता ने लोगों से कहा था कि "हम तो इसे मउगा समझते थे। घर में तो इसकी बोली, निकलती ही नहीं है। बाहर यह क्या राजनीति करेगा?" लेकिन उनके घर में आये हुए लोगों ने उनकी बात को काटते हुए जैसे यह कहा कि "ऐसी बात नहीं है, चचा! यह बहुत ही बहादुर लड़का है। इसी के कारण इन्हें पटना विधान सभा क्षेत्र का प्रचार प्रभारी बनाया गया है।" पटना मध्य से उम्मीदवार बनाये गये सुरेन्द्र श्रीवास्तव के घर में मीटिंग का आयोजन किया जा रहा है, उसकी तैयारी के लिए ही इनसे बात करने के लिए आये हैं। कल ही शाम में मोटरसाइकिल रैली भी निकालने की योजना है, उसके लिए भी इनके तरफ़ से कम से कम २०० मोटर साइकिल होना जरूरी है। इसकी व्यवस्था कैसे होगी, इसके बारे में भी मीटिंग में ही बताया जाएगा। इसलिए इनका उस मीटिंग में रहना जरूरी है।" ब्रह्मपुर के राजकुमार जी के द्वारा अपना मकसद खुल कर बताने के बाद वह पहला मौका था जब सत्यानन्द को अपने बगल में बैठाकर उसकी पीठ थपथपाते हुए उसके पिता ने शाबाशी दिया था। बड़े गर्मजोशी के साथ वे सत्यानन्द की तारीफ करते हुए पहली बार कहे थे, "आखिर बेटा किसका है? इसकी बोली नहीं निकलती थी, इसके लिए ही हम इसे डाँटते-डपटते रहते थे। अच्छा है इसका कण्ठ खुल गया। सब काली मइया की कृपा है। इस पर थोड़ा ध्यान दीजिएगा, छोटी-छोटी बातों से भावुक हो जाता है यह।" उस दिन सत्यानन्द को पहली बार महसूस हुआ था कि उस घर में उसे कोई चाहने वाला भी है।
सत्यानन्द के कारण बिहार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ नरेन्द्र सिंह, अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा में उत्तर प्रदेश के महामंत्री सह उत्तर प्रदेश के सहकारिता मंत्री प्रेम प्रकाश सिंह, उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष शिवराम सिंह गौड़, उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष उमाशंकर सिंह गहमरी, बिहार के प्रदेश अध्यक्षराराम शंकर सिंह, युवा मंच के प्रदेश अध्यक्ष गोपाल सिंह, बिहार पिपुल्स पार्टी के अध्यक्ष आनन्द मोहन, भारतीय जनता पार्टी, पटना के सांसद सीपी ठाकुर, बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, आरा के विधायक अमरेन्द्र प्रताप सिंह, पटना मध्य के विधायक अरूण कुमार सिन्हा सहित कैलाशपति मिश्र, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, इन्दर सिंह नामधारी, राम विलास पासवान, राम कृपाल यादव, गुलाम गौस, संजय पासवान, पप्पू यादव और सैय्यद मुशीर अहमद जैसे लोगों के साथ मंच साझा कर चुके सत्यानन्द के बारे में काफी लम्बे अन्तराल के बाद जब उनके पिता को यह पता चला था कि उनका बेटा भाजपा निवेशक मंच के प्रदेश कार्यसमिति का सदस्य सहित बाढ़ जिला समिति के महामंत्री के रूप में बहुत अच्छा काम कर रहा है, तब भी उसे अपने पिता का आशिर्वाद मिला था।
यादवों और राजपूतों के बीच छिड़े खूनी संघर्ष के दौरान अपनी जान की परवाह किये बगैर सत्यानन्द ने जिस तरह से अपनी जान पर खेल कर उस लड़ाई को खत्म कराया था, उसके कारण उसके गाँव के राजपूतों और पड़ोसी गाँव के यादवों के द्वारा भी सत्यानन्द को मुखिया का चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाया गया था। उस समय सत्यानन्द के पिता भी उसके साथ थे और उन दिनों अखबारों में आये दिन आने वाले सत्यानन्द के कार्यक्रमों की सूचनाओं से गौरवान्वित होते हुए अपने मित्रों के सामने अक्सर कहते भी थे कि यह लड़का सच्चा समाजसेवी है। उनकी इन तारिफों से ही सत्यानन्द घर की सारी शिक्वा-शिकायत को भूल जाता था। मगर नोमिनेशन के लिए लाये हुए उसके फार्म में उसके बड़े भाई ने चुपचाप अपनी पत्नी का डिटेल भर कर नोमिनेशन के दिन यह कहा कि तुम अगली बार चुनाव लड़ना, फार्म अपनी पत्नी के नाम से भर दिए हैं। तब सत्यानन्द को ऐसा लगा कि उसके पैरों के नीचे से किसी ने जमीन खींच लिया है। हालांकि वह चाहता तो दूसरा फार्म लाकर भी अपना नोमिनेशन करवा सकता था। जन समर्थन तो उसके पक्ष में था ही। लेकिन उसे जैसे ही यह पता चला कि उसके बड़े भाई ने यह सब अपनी माँ के कहने पर किया है, सत्यानन्द का सारा जोश ठण्डा पड़ गया था। घर के अन्दर होने वाले झगड़ों की बातें बाहर आने से उसकी बदनामी न हो, इसके लिए उसने न चाहते हुए भी अपने बड़े भाई का ही साथ दिया था। इसके लिए उसका मकसद सिर्फ़ इतना ही था कि उसे अपना दुश्मन समझने वाली उसकी माँ खुश हो जाये। चुनाव तो हुआ लेकिन वोटिंग के दिन सबके सामने अपने बड़े भाई के द्वारा अपमानित होने के कारण गाँव की मन्दिर में जाकर फूट-फूट कर रो रहे सत्यानन्द जी के साथ किये गये छल की बात जानते ही उनकी समर्थित उम्मीदवार समझ कर उनकी भाभी को वोट देने वाले लोग उसी गाँव के अन्य उम्मीदवार को वोट देने लगे और मतगणना होने पर उनके नाम पर वोट पाने वाली उनकी भाभी मात्र १२५ वोटों से हार गई थी। जिसका ठीकरा भी सत्यानन्द जी पर ही फोड़ते हुए उनके साथ दूबारा मार-पीट शुरू कर दिया गया था। उनके हिस्से की जमीन बेच कर उन्हें घर से भगा दिया गया था।
सत्यानन्द के पिता के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद 35 साल पहले साधुओं के द्वारा कही गई बातों को ध्यान में रख कर उसे अपने पिता के आस-पास फटकने भी नहीं दिया गया था। एक दिन उसके पिता जब खुद ही सत्यानन्द के कमरे में आ गए थे तब उसे अपने बड़े भाई का कोपभाजन होना पड़ा था। आखिर उसकी अनुपस्थिति में ही सत्यानन्द के पिता की मृत्यु हो गई। मगर उसकी माँ जो जीवित है, वह 35 साल पहले कहे गए उस साधु की बातों को याद कर के आज भी यही मानती है कि तलवार से गर्दन काट कर उसका मंझला लड़का ही उसकी हत्या करेगा। इस भय से वह हमेशा उससे दूर रहती है और उसे मरवाने के लिए हमेशा नये-नये जाल बुनती रहती है। जबकि उसकी माँ भय के कारण समय से पहले ही न मर जाए, इसके लिए अब सत्यानन्द भी अपनी माँ से जानबूझकर दूर रहता है। हालांकि इस बदनसीबी के कारण उसे जब भी एकांत मिलता है अफर-अफर कर खूब रोता है।
मैं देख चुका हूँ कि माँ-बाप की सेवा करने के बाद भी आशिर्वाद नहीं मिलता है। जिसके नसीब में दुख लिखा है, उसे चाह कर भी सुख नहीं मिल सकता है। हमारे किस्मत की चाभी सिर्फ परमात्मा के हाथों में है। सेवा करनी है तो दीन-दुखी और जरूरतमंदों की करनी चाहिए। ऐसे लोगों के हृदय से निकला आशिर्वाद ही फलदायी होता है। लेकिन माता-पिता के द्वारा दिया गया श्राप भी जरूर लगता है।
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