यह ब्लॉग विश्व शान्ति के आकांक्षी लेखकों और पत्रकारों द्वारा अपने विचारों को परस्पर साझा करने वाला एक संवाद मंच है। कविता, कहानी, संस्मरण और खोज़ी खबरों के द्वारा समाज के उस सच्चाई को सामने लाना हमारा मकसद है जिसके द्वारा विश्व में शान्ति स्थापित हो पाए। जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय और भाषा आधारित सोच के कारण बढ़ते अन्याय, उत्पीड़न और हिंसा से पीड़ित सभी जाति के जरूरतमंद लोगों तक भोजन-पानी, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण दिलाने के लिए सक्रिय लोगों की सूचना देना भी हमारा मकसद है।
मंगलवार, 5 जनवरी 2021
रविवार, 6 दिसंबर 2020
शनिवार, 28 नवंबर 2020
कविता : मेरा मन यायावर
बेवफा
देखा था तुम्हें जिस दिन मैनेसमझा था कि तुम बड़ी भोली हो।तुम हँसी तो हो, नादां भी कुछ मनमोहनी और हमजोली हो।यह सोच के दिल मैं दे बैठा तेरे इश्क में पागल होकर मैं। पर अब यह सोच के रोता हूँ क्या देख के तुम से प्यार किया। तुम नादां हो इसको तुम मेंमैंने पहले ही देखा था। पर जालिम हो और कातिल भीइस को मैने नहीं समझा था। आखिर तुम क्यों मेरे दिल में बसमन मोह लिया दिल जीत लिया। फिर क्या आखिर मजबूरी थीयह दिल तूने क्यों तोड़ दिया।तुम्हें जहाँ भी रहना वहीं रहोपर अब ऐसा फिर मत करना।वर्ना तेरे कारण नारी परफिर से कभी यकीं नहीं होगा।नहीं इश्क करेंगे कोई कहींबर्बाद गुलिस्तां यह होगा
गुरुवार, 5 नवंबर 2020
लघुकथा : अन्तहीन त्रासदी
लेखक : प्रसेनजीत सिंह
माँ-बाप की सेवा करने वाले को आशिर्वाद ही मिलता है ऐसी बात नहीं है। सत्यानन्द ने तो अपने माँ-बाप की खूब सेवा की थी, मगर उसके घर पर आये दो साधुओं ने तीसरी कक्षा में पढ़ रहे सत्यानन्द की ओर ईशारा करते हुए उसकी माँ से जैसे ही कहा कि "यह नाग अपने माता-पिता के वृद्ध होने पर तलवार से गर्दन काट कर हत्या कर देगा। अपनी सुरक्षा चाहती हैं तो इसे मुझे दे दीजिए।" उस समय तो उसकी माँ ने उस साधु की बात पर विश्वास नहीं किया था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे सत्यानन्द के प्रति उसकी माँ के मन में नफ़रत का भाव बढ़ता जा रहा था। अपने बेटे के हाथों अपनी होने वाली हत्या की कल्पना कर के उसके प्रति घृणा बढ़ती जा रही थी। सत्यानन्द के पिता जो भारतीय रिजर्व बैंक में उस समय सहायक कोषपाल थे, घर में पैसे की कमी नहीं थी, फिर भी उसे शिक्षा-दीक्षा रोक कर घर की सेवा में लगा दिया गया था। राजधानी पटना में रहते हुए भी नजदीकी गाँव में रहने वाले यादवों के लड़कों के साथ दिन भर गाय चराता, घर के बगल में स्थित आटा चक्की की दुकानों के बन्द रहने पर भी उसे गेहूं पिसवा कर ही लौटना पड़ता। पटना में स्ट्राइक रहने के कारण सभी मीलों और दुकानों के बन्द रहने पर भी चाहे जहाँ से भी हो गेहूंँ पिसवा कर ही लौटना पड़ता था। अन्यथा बिना काम पूरा किये वापस लौटने पर अपनी माँ और बड़े भाई से मार खाने के लिए तैयार रहना पड़ता था। पटना के लगभग सभी मील वाले उसकी इस मजबूरी के बारे में जान गये थे, इसके कारण कोई न कोई खतरे मोल लेकर उसकी मदद कर ही देता था। वापस लौटने पर घर से कुछ दूरी पर स्थित कुँए से पानी भर-भर कर नाद और ड्राम को भरना पड़ता, कुएं से पानी भर-भर कर ही बन रहे मकान की दीवारों को पटाना पड़ता। इसके बाद भी कोई न कोई बहाना बनाकर खाना खाने से पहले, खाना खाते-खाते और खाना खाने के बाद भी पिटाना ही पड़ता था। यही उसका रोज़ का नियम बन गया था।
उसे नमकीन के बजाए मीठा भोजन ज्यादा पसन्द था। इसके बावजूद घर में मिठाई आदि आने पर उसकी माँ उसे सत्यानन्द से छुपा कर रखती थी। कई बार तो उसके सामने ही अपने अन्य बच्चों और घर में आये हुए रिश्तेदारों में उन मिठाईयों को बाँट देती, लेकिन उसे यह कह कर भगा देती थी कि "तू हम्मर गर्दन काटबेऽ आउ हम तोरा मिठाई खिलइयऊ"?.. और उसे फिर किसी काम में फँसा देती थी। लेकिन जब कोई मिठाई खराब हो जाता तो बड़े प्रेम से उसे अपने पास बुलाती और कहती, "तोरा मिठाई अच्छा लग हउ नऽ?.. ले, ओन्ने जाके खा लेऽ। न तऽ कोनो छीन लेतउ।" उस मिठाई से आ रही दुर्गन्ध के कारण सत्यानन्द वह मिठाई नहीं लेना चाहता तब उसकी माँ कहती, "तोरे ला नुका के रखले हलियऊ। लेकिन यादे हेरा गेलियऊ हल बेटाऽ। जादे खराब न हबऽ, बस ऊपर से पोछ दीहऽ।" कह कर खुद ही अपनी मिठाई को पोछ देती और कहती -" बढ़ियां हो गेलई नऽ, लऽ अब खा लऽ।"
खराब हो कर जाला लग चुके मिठाई को मुँह से लगाते ही मुँह का स्वाद खराब हो जाता था। लेकिन अपनी माँ की झूठी ही सही मगर उसके क्षणिक प्यार का सुख भोगने के लिए वह उस मिठाई की कड़वाहट को भूल कर के माँ की ममता का प्यास मिटाने के लिए उस मिठाई के साथ माँ के द्वारा दिये गये सभी रोटियों को सुबक-सुबक कर रोते हुए खा जाता था। उसकी आँखों से आँसू इसलिए नहीं निकलते की उसकी माँ उसे न खाया जाने वाला चीज़ खाने के लिए मजबूर कर रही है, बल्कि वह यह सोच कर रोता था कि उसने कौन सा गुनाह किया है, जिसके कारण उसकी माँ भी उससे नफ़रत करती है।
उस समय उसके घर में संजय नामक जो नौकर था उसे वेतन और तीनों समय भोजन के अलावा साल में एक सेट नया कपड़ा भी दिया जाता, जबकि बेचारा सत्यानन्द को अपने पिता और भाईयों के छोड़े हुए पुराने कपड़े ही दिए जाते थे। यहाँ तक कि उसे अपने छोटे भाईयों के भी छोड़े हुए कपड़े पहनने के लिए मजबूर किया जाता था। उस घर में उसकी जो औकात थी, उसे जानने के बाद सत्यानन्द के ननिहाल से आया हुआ घर का नौकर और किरायेदार भी नाजायज़ फायदा उठाते थे। साधुओं के द्वारा कही हुई भविष्यवाणी के भय से उसकी माँ के मन में बैठा हुआ विश्वास झूठा साबित हो जाए, सिर्फ इसके कारण वह घर के सभी जुल्मों को चुपचाप सहते हुए अपने जैसे मजबूर और दुखी लोगों की बाहर में मदद करता था।
एक दिन अचानक बिना कोई पूर्व सूचना के उसकी तलाश करते हुए बिहार पिपुल्स पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के प्रदेश सचिव प्रमोद सिंह और प्रदेश उपाध्यक्ष राजकुमार सिंह अपने समर्थकों के साथ सत्यानन्द के घर चले गए, तब उनके साथ चल रहे लोगों के हाथों में राइफल्स देखते ही सत्यानन्द की माँ ने काँपते हुए उससे कहा था कि "तू मर काहे न जा हे रेऽ। काऽ कर के अइले हे, कि घर में डकैत घुस्सल जाइत हऊ?" लेकिन जैसे ही उन लोगों के बारे में सत्यानन्द के पिता को पता चला उन्हें आदर पूर्वक घर में बैठाकर चाय-नाश्ता करवाने लगे थे।
घर में ऐसे लोगों के आने से वह काफी दहशत में था। उसे इस बात का भय था कि, इन लोगों के जाते ही उसकी जम कर धुनाई होगी। लेकिन उसे अपने पास बुला कर पीठ ठोकते हुए जिस समय उसके पिता ने लोगों से कहा था कि "हम तो इसे मउगा समझते थे। घर में तो इसकी बोली, निकलती ही नहीं है। बाहर यह क्या राजनीति करेगा?" लेकिन उनके घर में आये हुए लोगों ने उनकी बात को काटते हुए जैसे यह कहा कि "ऐसी बात नहीं है, चचा! यह बहुत ही बहादुर लड़का है। इसी के कारण इन्हें पटना विधान सभा क्षेत्र का प्रचार प्रभारी बनाया गया है।" पटना मध्य से उम्मीदवार बनाये गये सुरेन्द्र श्रीवास्तव के घर में मीटिंग का आयोजन किया जा रहा है, उसकी तैयारी के लिए ही इनसे बात करने के लिए आये हैं। कल ही शाम में मोटरसाइकिल रैली भी निकालने की योजना है, उसके लिए भी इनके तरफ़ से कम से कम २०० मोटर साइकिल होना जरूरी है। इसकी व्यवस्था कैसे होगी, इसके बारे में भी मीटिंग में ही बताया जाएगा। इसलिए इनका उस मीटिंग में रहना जरूरी है।" ब्रह्मपुर के राजकुमार जी के द्वारा अपना मकसद खुल कर बताने के बाद वह पहला मौका था जब सत्यानन्द को अपने बगल में बैठाकर उसकी पीठ थपथपाते हुए उसके पिता ने शाबाशी दिया था। बड़े गर्मजोशी के साथ वे सत्यानन्द की तारीफ करते हुए पहली बार कहे थे, "आखिर बेटा किसका है? इसकी बोली नहीं निकलती थी, इसके लिए ही हम इसे डाँटते-डपटते रहते थे। अच्छा है इसका कण्ठ खुल गया। सब काली मइया की कृपा है। इस पर थोड़ा ध्यान दीजिएगा, छोटी-छोटी बातों से भावुक हो जाता है यह।" उस दिन सत्यानन्द को पहली बार महसूस हुआ था कि उस घर में उसे कोई चाहने वाला भी है।
सत्यानन्द के कारण बिहार के स्वास्थ्य मंत्री डॉ नरेन्द्र सिंह, अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा में उत्तर प्रदेश के महामंत्री सह उत्तर प्रदेश के सहकारिता मंत्री प्रेम प्रकाश सिंह, उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष शिवराम सिंह गौड़, उत्तर प्रदेश के उपाध्यक्ष उमाशंकर सिंह गहमरी, बिहार के प्रदेश अध्यक्षराराम शंकर सिंह, युवा मंच के प्रदेश अध्यक्ष गोपाल सिंह, बिहार पिपुल्स पार्टी के अध्यक्ष आनन्द मोहन, भारतीय जनता पार्टी, पटना के सांसद सीपी ठाकुर, बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, आरा के विधायक अमरेन्द्र प्रताप सिंह, पटना मध्य के विधायक अरूण कुमार सिन्हा सहित कैलाशपति मिश्र, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, इन्दर सिंह नामधारी, राम विलास पासवान, राम कृपाल यादव, गुलाम गौस, संजय पासवान, पप्पू यादव और सैय्यद मुशीर अहमद जैसे लोगों के साथ मंच साझा कर चुके सत्यानन्द के बारे में काफी लम्बे अन्तराल के बाद जब उनके पिता को यह पता चला था कि उनका बेटा भाजपा निवेशक मंच के प्रदेश कार्यसमिति का सदस्य सहित बाढ़ जिला समिति के महामंत्री के रूप में बहुत अच्छा काम कर रहा है, तब भी उसे अपने पिता का आशिर्वाद मिला था।
यादवों और राजपूतों के बीच छिड़े खूनी संघर्ष के दौरान अपनी जान की परवाह किये बगैर सत्यानन्द ने जिस तरह से अपनी जान पर खेल कर उस लड़ाई को खत्म कराया था, उसके कारण उसके गाँव के राजपूतों और पड़ोसी गाँव के यादवों के द्वारा भी सत्यानन्द को मुखिया का चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाया गया था। उस समय सत्यानन्द के पिता भी उसके साथ थे और उन दिनों अखबारों में आये दिन आने वाले सत्यानन्द के कार्यक्रमों की सूचनाओं से गौरवान्वित होते हुए अपने मित्रों के सामने अक्सर कहते भी थे कि यह लड़का सच्चा समाजसेवी है। उनकी इन तारिफों से ही सत्यानन्द घर की सारी शिक्वा-शिकायत को भूल जाता था। मगर नोमिनेशन के लिए लाये हुए उसके फार्म में उसके बड़े भाई ने चुपचाप अपनी पत्नी का डिटेल भर कर नोमिनेशन के दिन यह कहा कि तुम अगली बार चुनाव लड़ना, फार्म अपनी पत्नी के नाम से भर दिए हैं। तब सत्यानन्द को ऐसा लगा कि उसके पैरों के नीचे से किसी ने जमीन खींच लिया है। हालांकि वह चाहता तो दूसरा फार्म लाकर भी अपना नोमिनेशन करवा सकता था। जन समर्थन तो उसके पक्ष में था ही। लेकिन उसे जैसे ही यह पता चला कि उसके बड़े भाई ने यह सब अपनी माँ के कहने पर किया है, सत्यानन्द का सारा जोश ठण्डा पड़ गया था। घर के अन्दर होने वाले झगड़ों की बातें बाहर आने से उसकी बदनामी न हो, इसके लिए उसने न चाहते हुए भी अपने बड़े भाई का ही साथ दिया था। इसके लिए उसका मकसद सिर्फ़ इतना ही था कि उसे अपना दुश्मन समझने वाली उसकी माँ खुश हो जाये। चुनाव तो हुआ लेकिन वोटिंग के दिन सबके सामने अपने बड़े भाई के द्वारा अपमानित होने के कारण गाँव की मन्दिर में जाकर फूट-फूट कर रो रहे सत्यानन्द जी के साथ किये गये छल की बात जानते ही उनकी समर्थित उम्मीदवार समझ कर उनकी भाभी को वोट देने वाले लोग उसी गाँव के अन्य उम्मीदवार को वोट देने लगे और मतगणना होने पर उनके नाम पर वोट पाने वाली उनकी भाभी मात्र १२५ वोटों से हार गई थी। जिसका ठीकरा भी सत्यानन्द जी पर ही फोड़ते हुए उनके साथ दूबारा मार-पीट शुरू कर दिया गया था। उनके हिस्से की जमीन बेच कर उन्हें घर से भगा दिया गया था।
सत्यानन्द के पिता के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद 35 साल पहले साधुओं के द्वारा कही गई बातों को ध्यान में रख कर उसे अपने पिता के आस-पास फटकने भी नहीं दिया गया था। एक दिन उसके पिता जब खुद ही सत्यानन्द के कमरे में आ गए थे तब उसे अपने बड़े भाई का कोपभाजन होना पड़ा था। आखिर उसकी अनुपस्थिति में ही सत्यानन्द के पिता की मृत्यु हो गई। मगर उसकी माँ जो जीवित है, वह 35 साल पहले कहे गए उस साधु की बातों को याद कर के आज भी यही मानती है कि तलवार से गर्दन काट कर उसका मंझला लड़का ही उसकी हत्या करेगा। इस भय से वह हमेशा उससे दूर रहती है और उसे मरवाने के लिए हमेशा नये-नये जाल बुनती रहती है। जबकि उसकी माँ भय के कारण समय से पहले ही न मर जाए, इसके लिए अब सत्यानन्द भी अपनी माँ से जानबूझकर दूर रहता है। हालांकि इस बदनसीबी के कारण उसे जब भी एकांत मिलता है अफर-अफर कर खूब रोता है।
मैं देख चुका हूँ कि माँ-बाप की सेवा करने के बाद भी आशिर्वाद नहीं मिलता है। जिसके नसीब में दुख लिखा है, उसे चाह कर भी सुख नहीं मिल सकता है। हमारे किस्मत की चाभी सिर्फ परमात्मा के हाथों में है। सेवा करनी है तो दीन-दुखी और जरूरतमंदों की करनी चाहिए। ऐसे लोगों के हृदय से निकला आशिर्वाद ही फलदायी होता है। लेकिन माता-पिता के द्वारा दिया गया श्राप भी जरूर लगता है।
बुधवार, 4 नवंबर 2020
आँसुओं का समुन्दर
माफ़ी का महत्व
(दहेज़ उत्पीड़न कानून से पीड़ित परिवार की सत्य कथा)
राधिका और नवीन को आज तलाक के कागज मिल गए थे। दोनो साथ ही कोर्ट से बाहर निकले। दोनो के परिजन साथ थे और उनके चेहरे पर विजय और सुकून के निशान साफ झलक रहे थे। चार साल की लंबी लड़ाई के बाद आज फैसला हो गया था।
दस साल हो गए थे शादी को मग़र साथ मे छः साल ही रह पाए थे।
चार साल तो तलाक की कार्यवाही में लग गए।
राधिका के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी नवीन के घर से लेना था और नवीन के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो राधिका से लेने थे।
साथ मे कोर्ट का यह आदेश भी था कि नवीन दस लाख रुपये की राशि एकमुश्त राधिका को चुकाएगा।
राधिका और नवीन दोनो एक ही टेम्पो में बैठकर नवीन के घर पहुंचे। दहेज में दिए समान की निशानदेही राधिका को करनी थी।
इसलिए चार वर्ष बाद ससुराल जा रही थी। आखरी बार बस उसके बाद कभी नही आना था उधर।
सभी परिजन अपने अपने घर जा चुके थे। बस तीन प्राणी बचे थे।नवीन, राधिका और राधिका की माता जी।
नवीन घर मे अकेला ही रहता था। मां-बाप और भाई आज भी गांव में ही रहते हैं।
राधिका और नवीन का इकलौता बेटा जो अभी सात वर्ष का है कोर्ट के फैसले के अनुसार बालिग होने तक वह राधिका के पास ही रहेगा। नवीन महीने में एक बार उससे मिल सकता है।
घर मे परिवेश करते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गई। कितनी मेहनत से सजाया था इसको राधिका ने। एक एक चीज में उसकी जान बसी थी। सब कुछ उसकी आँखों के सामने बना था।एक एक ईंट से धीरे धीरे बनते घरोंदे को पूरा होते देखा था उसने।
सपनो का घर था उसका। कितनी शिद्दत से नवीन ने उसके सपने को पूरा किया था।
नवीन थकाहारा सा सोफे पर पसर गया। बोला "ले लो जो कुछ भी चाहिए मैं तुझे नही रोकूंगा"
राधिका ने अब गौर से नवीन को देखा। चार साल में कितना बदल गया है। बालों में सफेदी झांकने लगी है। शरीर पहले से आधा रह गया है। चार साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई।
वह स्टोर रूम की तरफ बढ़ी जहाँ उसके दहेज का अधिकतर समान पड़ा था। सामान ओल्ड फैशन का था इसलिए कबाड़ की तरह स्टोर रूम में डाल दिया था। मिला भी कितना था उसको दहेज। प्रेम विवाह था दोनो का। घर वाले तो मजबूरी में साथ हुए थे।
प्रेम विवाह था तभी तो नजर लग गई किसी की। क्योंकि प्रेमी जोड़ी को हर कोई टूटता हुआ देखना चाहता है।
बस एक बार पीकर बहक गया था नवीन। हाथ उठा बैठा था उसपर। बस वो गुस्से में मायके चली गई थी।
फिर चला था लगाने सिखाने का दौर । इधर नवीन के भाई भाभी और उधर राधिका की माँ। नोबत कोर्ट तक जा पहुंची और तलाक हो गया।
न राधिका लोटी और न नवीन लाने गया।
राधिका की माँ बोली" कहाँ है तेरा सामान? इधर तो नही दिखता। बेच दिया होगा इस शराबी ने ?"
"चुप रहो माँ"
राधिका को न जाने क्यों नवीन को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा।
फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट में मिलाया गया।
बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया।
राधिका ने सिर्फ अपना सामान लिया नवीन के समान को छुवा भी नही। फिर राधिका ने नवीन को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया।
नवीन ने बैग वापस राधिका को दे दिया " रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में ।"
गहनों की किम्मत 15 लाख से कम नही थी।
"क्यूँ, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने चिल्ला रहा था"
"कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, राधिका। वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी साबित किया गया है।"
सुनकर राधिका की माँ ने नाक भों चढ़ाई।
"नही चाहिए।
वो दस लाख भी नही चाहिए"
"क्यूँ?" कहकर नवीन सोफे से खड़ा हो गया।
"बस यूँ ही" राधिका ने मुँह फेर लिया।
"इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी? ले जाओ,,, काम आएगें।"
इतना कह कर नवीन ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया। शायद आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था।
राधिका की माता जी गाड़ी वाले को फोन करने में व्यस्त थी।
राधिका को मौका मिल गया। वो नवीन के पीछे उस कमरे में चली गई।
वो रो रहा था। अजीब सा मुँह बना कर। जैसे भीतर के सैलाब को दबाने दबाने की जद्दोजहद कर रहा हो। राधिका ने उसे कभी रोते हुए नही देखा था। आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला।
मग़र ज्यादा भावुक नही हुई।
सधे अंदाज में बोली "इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक?"
"मैंने नही तलाक तुमने दिया"
"दस्तखत तो तुमने भी किए"
"माफी नही माँग सकते थे?"
"मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने। जब भी फोन किया काट दिया।"
"घर भी आ सकते थे"?
"हिम्मत नही थी?"
राधिका की माँ आ गई। वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गई। "अब क्यों मुँह लग रही है इसके? अब तो रिश्ता भी खत्म हो गया"
मां-बेटी बाहर बरामदे में सोफे पर बैठकर गाड़ी का इंतजार करने लगी।
राधिका के भीतर भी कुछ टूट रहा था। दिल बैठा जा रहा था। वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी। जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी। कैसे कैसे बचत कर के उसने और नवीन ने वो सोफा खरीदा था। पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था।"
फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई। कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी। उसके साथ तुलसी भी घर छोड़ गई।
घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई। माँ ने पीछे से पुकारा मग़र उसने अनसुना कर दिया। नवीन बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था। एक बार तो उसे दया आई उस पर। मग़र वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है।
उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा। अस्त व्यस्त हो गया है पूरा कमरा। कहीं कंही तो मकड़ी के जाले झूल रहे हैं।
कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से?
फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वो नवीन से लिपट कर मुस्करा रही थी।
कितने सुनहरे दिन थे वो।
इतने में माँ फिर आ गई। हाथ पकड़ कर फिर उसे बाहर ले गई।
बाहर गाड़ी आ गई थी। सामान गाड़ी में डाला जा रहा था। राधिका सुन सी बैठी थी। नवीन गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया।
अचानक नवीन कान पकड़ कर घुटनो के बल बैठ गया।
बोला-" मत जाओ, माफ कर दो"
शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए चार साल से तड़प रही थी। सब्र के सारे बाँध एक साथ टूट गए। राधिका ने कोर्ट के फैसले का कागज निकाला और फाड़ दिया ।
और मां कुछ कहती उससे पहले ही लिपट गई नवीन से। साथ मे दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे।
दूर खड़ी राधिका की माँ समझ गई कि
कोर्ट का आदेश दिलों के सामने कागज से ज्यादा कुछ नही।
काश उनको पहले मिलने दिया होता?
🙏🙏 अगर माफी मांगने से ही रिश्ते टूटने से बच जाए, तो माफी माँग लेनी चाहिए। मगर जब माफी माँगने के बाद भी पत्नी की अकड़ कम न हो तो पुरुषों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए "पुरूष आयोग" का गठन करवाने के प्रयास में लग जाना चाहिए।
सोमवार, 2 नवंबर 2020
Introduction of Sawarn Fans Club
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Swami Prasenjeet with his friends in the Seminar of Sawarn Fans Club |
जाति, धर्म और लिंग आधारित भेद-भाव को बढ़ावा देने वाले विभिन्न कानूनों के कारण विकास की मुख्य धाराओं से वंचित कर दिए गए सवर्ण समाज को एकजुट करने के उद्देश्य से बनाया गया है सवर्ण फैंस क्लब नामक यह सामाजिक समुह। इस समूह का मुख्य उद्देश्य है गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बनवाना। लेकिन सिर्फ़ यही उद्देश्य नहीं है बल्कि विश्व को आधुनिक मानव सभ्यता के साथ लोकतत्र की भी सीख देने वाले हमारे देश भारत की गिरती हुई दशा को सम्भालने के लिए जन-जागरूकता अभियान चलाने के लिए भी बनाया गया है यह कलब। भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४४ में यह वर्णित है कि सभी राज्य अपने यहाँ समान नागरिक संहिता लागू करे, मगर यह कानून उन पर बाध्यकारी नहीं है। यह कैसा संविधान है? इतना कमजोर और लचर संविधान के कारण ही यहाँ जोर-जबरदस्ती का कानून चलता है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस के तर्ज पर गठित कानून के कारण ही यहाँ महिला उत्पीड़न कानून की गैर जमानती धारा 498 अ के द्वारा स्वाभिमानी पुरुषों को भी पौरुषहीन बना दिया गया है।
जैसे हर औरत अबला नहीं होती वैसे ही हर पुरुष अत्याचारी नहीं होता है। इसके बावजूद घर-गृहस्थी की नींव समझे जाने वाले पुरुष वर्ग को ही कमजोर करने के लिए राष्ट्रीय एकता के दुश्मनों के द्वारा सबसे पहले महिला उत्पीड़न कानून की गैर जमानती धारा 498 अ बनाकर इस देश को पौरुषहीन बनाने का कुचक्र चालू किया गया, इसके बाद राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा के लिए हर समय आत्म बलिदान के लिए भी तत्पर रहने वाले सवर्ण समाज को कमजोर करने के लिए इन्हें शिक्षण-प्रशिक्षण, नियुक्ति-प्रोन्नत्ति, ऋण-अनुदान आदि हरेक मामलों में लगातार उपेक्षित किया जाने लगा। यह साजिश उपेक्षित सवर्णों को राष्ट्र द्रोह के लिए प्रेरित करवाने का स्वप्न देखने वाले गद्दारों के द्वारा रचा जा रहा है। ताकि आर्थिक अक्षमता, शारीरिक विकलांगता और शैक्षिक योग्यता के बजाए सिर्फ़ खास जाति, खास धर्म और खास लिंग के लोगों को ही आरक्षण देकर सवर्ण कहलाने वाले स्वाभिमानी जाति को उग्रवाद की आग में झोंक कर आसानी से खत्म किया जा सके।
ऐसा सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि हम सवर्णों के नेस्तनाबूद हो जाने के बाद इस देश पर दूबारा विदेशी झण्डे फहराने का ख्वाब देखने वाले लोगों को निःशेष भारतीयों को कुचलने में ज्यादा मेहनत न करना पड़े। ऐसे ही स्वप्न देखने वाले गद्दारों की मूर्खता से इस देश की रक्षा के लिए सवर्ण फैंस क्लब नामक यह ग्रुप बनाया गया है। ताकि राष्ट्रीय एकता में बाधक बन रहे जाति, धर्म और लिंग आधारित आरक्षण को विलोपित करवाकर गरीबी आधारित आरक्षण का कानून बनवाने के लिए संघर्षरत सवर्ण समाज की गतिविधियों को आपस में साझा किया जा सके।
सवर्ण फैंस क्लब नामक इस ग्रुप में सामाजिक समरसता हेतु गरीबी आधारित आरक्षण को समर्थन देने के लिए तत्पर हमारे सभी सदस्यों और सदस्य संगठनों की संघर्ष समाचारों व समस्याओं को प्रमुखता से प्रकाशित-प्रसारित किया जाएगा। देश के अन्य ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करने के बजाए इस ग्रुप में सिर्फ़ सवर्ण समाज की समस्याओं और संघर्षों पर केन्द्रित फीचर, चर्चित विश्लेषकों और टिप्पणीकारों की राय, प्रेरक प्रसंग, यात्रा संस्मरण, स्वास्थ्य-शिक्षा, वैदिक सभ्यता-संस्कृति तथा आध्यात्मिक जागृति से सम्बंधित ज्ञानप्रद लेखों और वृत्तचित्रों को सम्मिलित किया जा सकेगा।
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गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020
समसामयिक कविता
बेवफाओं के शौहर (कविता)
बेवफाओं के शौहर नहीं होते हैं।
न ही घर उसके बसते, न प्यार मिलते हैं।
जिस जवानी पे अपने गुमां करती है,
बन के बिस्तर हमेशा मजे करती है।
उम्र जब बीत जाता जवानी का तो,
उसके एक भी दिवाने नहीं मिलते हैं।
बेवफाओं के शौहर नहीं होते हैं
न ही घर उसके बसते, न प्यार मिलते हैं।
खाट धर कर जब अपने वो गिर जाती है,
तब ही उसको किये पाप याद आते हैं।
जिसको धोखा दिया, जिनपे जुल्म किया
बाद बिस्तर पकड़ने पे याद आते हैं।
बेवफाओं के शौहर नहीं होते हैं
न ही घर उसके बसते, न प्यार मिलते हैं।
आँसुओं के सिवा फिर न बचता है कुछ
रुपये होने पे भी काम न आते हैं।
जबकि जो जिन्दगी में निभाते वफा
उनके मरते समय भी हजार आते हैं।
बेवफाओं के शौहर नहीं होते हैं
न ही घर उसके बसते, न प्यार मिलते हैं।
कोठियां कर ले चाहे हजारों खड़ा
दर्जनों नौकरों को खटाये यहाँ।
चाहे सोने के क्यों न महल हों उसे
उसकी कीमत है क्या जिसके शौहर नहीं।
बेवफाओं के शौहर नहीं होते हैं
न ही घर उसके बसते, न प्यार मिलते हैं।
जिनको आशिक समझती जवानी में तुम
वे सभी मौज़-मस्ती में ही साथ हैं।
एक बार गिर के उनको दिखाओ कभी
आशिकी सब की झूठी निकल जायेगी।
तब ही कहता कभी भी जफा न करो
ताकि मरते समय भी कोई पास हो।।
जब करोगी वफ़ा, तब मिलेगा वफ़ा
वर्ना कोई न तेरे निकट आयेगा।
जिसको चाहोगी दिल से निभाओगी साथ
वह मरते समय भी लिपट जाएगा।
बेवफाओं के शौहर नहीं होते हैं
न ही घर उसके बसते, न प्यार मिलते हैं।
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नेता चरित (कविता)
कोई मतदाता न छूटे,
मास्क पहनकर बूथ पे जायें।
खुद तो जायें औरों को भी
अपने साथ में लेते जायें।
वोट सुरक्षित पाकर के ही
सुरक्षित जो हो पाएंगे।
जीत के फिर से सत्ता की
कुर्सी का मजा ले पायेंगे।
आप खायें कुछ, या न खायें
उसकी चिन्ता नहीं करेंगे।
जैसे भी हो पहले जाकर
निज मतदान जरुर करेंगे।
हक की बातें जैसे हैं भूले
वैसे ही उस दिन भूले रहेंगे।
दाना-पानी, रुपया-पैसा
के चक्कर में नहीं पड़ेंगे।
गाँव, जवार और अपनी चिन्ता
छोड़ के पहले वोट करेंगे।
जो है देश का असली दुश्मन
उसको चुन कर फिर गौण रहेंगे।
अब तक जैसे मौन रहे हैं
उस दिन भी वैसे मौन रहेंगे।
अपमान सहें या हक को छोड़ें
पर मतदान जरुर करेंगे।
जो हैं देश के दुश्मन सारे
उनको विजित जरूर करेंगे।
चुनाव होते जो न दिख पायें
अपनी दुनियाँ में फिर से रमेंगे।
जो संकट में साथ न देंंगे
रिश्वत बिन नहीं काम करेंगे।
ऐसे लोगों को ही चुन कर
कुर्सी पर जरूर बिठायेंगे।
जिनसे मिलना हो कभी जरूरी
फिर भी मिल नहीं पायेंगे।
चाहे साथ में जो हो जाए
उनको विजय दिलायेंगे।
नहीं जिताने से जो रुठेंगे
एसीड से नहला देंंगे।
ऐसे ही रंगदारों को मिल
निश्चित विजयी बनायेंगे।
जैसे भी हो पहले जाकर
निज मतदान जरुर करेंगे।
- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास

लूटे के अजादी बा✍️
हम हूँ लूटींऽ, तू हूँ लूटऽ,
लूटे के आजादी बा।
जइसे बन्द बाऽ बिहार में दारू
अउसहीं घुसबोऽ बन्देऽ बाऽ।।
जिन कर घरवा फुसवा के हल
अब कोठवन के मालिक बाऽ।
ई सम्भव भेल मोर विकास से
तब ही तऽ नेतवन झूमत बाऽ।।
भांड़ में जाए जनता आँधर
जे विकास ना देखत बाऽ।
साइकिल से मर्सिडीज लेबाइल
तब हूं न उनका लउकत बाऽ।।
शहर में भी रोड बनतऽ न रहे
अब चौंढन में भी रोड बाऽ।
जहाँ पे पुल-पुलिया ना रहे
उहां पे पुल रोज़ ढ़हत बाऽ।।
फिर भी कइसे कहे ले दुनियाँ
बिहार के जनता रोबतऽ बा।
हम हूँ लूटीं, तू हूं लूटऽ
लूटे के आजादी बाऽ।।
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आवश्यक सूचना
सउदी अरब में पारा पहुंचा
62° से भी पार।
अँधाधूंध वृक्ष कट रहे,
उसी से है यह उष्ण अपार।।
खड़ी धूप में जो गाड़ी है
उसका है जब ऐसा हाल।
तब क्या मानव को छोडे़गा
मानव से पैदा यह काल।।
जरा ध्यान से देख ले फोटो
कितनी यहाँ पे गर्मी है।
हम सब बचे हुए हैं क्योंकि
अपने तन में नरमी है।।
लेकिन अब यह नहीं बचेगा,
ज्यादा दिन यह सुन लो आज।
जल्दी डग-डग वृक्ष लगाने
की कर दो शुरू घर-घर काज।।
निस दिन हम एक पेड़ लगाएं।
उष्ण धरा को हरित बनाएं।।
इस अभियान में हमारा साथ देने के लिए इच्छुक लोग मेरे फेसबुक पेज़ को रेटिंग देकर हमारा मनोबल बढ़ायें। निवेदक : उदासी सन्त, कवि और पत्रकार
प्रसेनजीत सिंह, सम्पादक :
कौशिक कंसल्टेंसी एण्ड इंटेलिजेंस ब्यूरो, भारत
मैं ही हूँ सलमान (कविता)
सुनो ऐ जाहिलों की जात,
तुम्हारी क्या है अब औकात।
तुम्हारे घर में ही रह कर,
हैं करते आज भी हम राज।।
तुम्हारीऽ छीन कर दौलतऽ
तुम्हें! बर्बाद मैंने की।
तुम्हारेऽ देश में ही
रह के जगऽ आबाद मैंने की।।
किया हूँ टुकड़े तेरे देश का
फिर भी यहीं हूँ मैं।
यहाँ पर चल रहे कानून में भी
मैं ही हूँ छाया।।
तुम्हारी क्या है अब औकात
सुन लेऽ मैं ही हूँ सलमान।
तेरे घर-बार की दौलत
समझता जेब का सामान।।
कहीं ऐसा न हो जाए
तेरा घर-बार छिन जाए।
समझते हो जिसे अपना,
वो अपने ही बहक जाएं।।
तभी मैं कहता हूँ कि भाग ले तूऽ
हिन्दी फिल्मों से।
नहीं तो तोड़ दूँगा सपने तेरेऽ
अपनी जुल्मों से।।
तुम्हारे जैसे लोगों की
मैं रखताऽ नब्ज़ मुट्ठी में।
जिसे बस सोचते ही मैं
मसल देता हूँ चुटकी में।।
मेरा तुम क्या बिगाड़ोगे
चाह कर भी भारत में।
जहाँ कानून ने भी है किया,
तेरे जान को सस्ती।।
जो मरते हैं यहाँ भूखे
उसे भी पूछती न ये,
जो बङ्गलों में ठहरते हैं
उन्हीं को भीख जो देती।।
यकीं गर है नहीं तुमको
तो देखो गाँव में जाकर।
न जिनको रोजी-रोटी कुछ
वे भी अगड़े कहाते हैं।।
जो हैं बेहाल फिर भी
भीख लेने में लजाते हैं।
न जिनके पास एक रूपया
न धन-दौलत न कुटिया है।
उन्हें भी देश के कानून ये
सम्पन्न दिखाते हैं।
है जिनका छिन चुका घर-बार
उनके साथ न कोई।
अगर कहना न मानोगे
तो तेरा हाल वही होगा।
सम्भल जा अब भी तुमको मैं
यहाँ आगाह करता हूँ।
वर्ना मरने से भी ज्यादा मैं
बर्बाद करता हूँ।।
- सुशान्त सिंह राजपूत के द्वारा आत्महत्या करने के पहले भी कई लोगों आत्महत्या किया है। लेकिन उनमें सर्वाधिक संख्या सवर्ण जाति की तथा उन लोगों में भी विवाहित पुरुषों की ही होती है। इसके बावजूद इस देश में पुरुष वर्ग और सवर्ण जाति के मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करने वाला कोई आयोग नहीं है। इस देश में विश्व की सर्वाधिक आबादी वाले लोगों के लिए अल्पसंख्यक आयोग तो है लेकिन बौद्ध धर्म के अनुयायियों से भी कम आबादी वाले हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए कोई आयोग नहीं है। किसी समाज को बर्बाद करने के लिए उसकी एकजुटता को खत्म करना जरूरी है और इसके लिए जाति, धर्म और लिंग आधारित भेद-भाव को बढ़ावा देने वाले लोगों ने आरक्षण का कानून बनाया था। जिसमें ये सफल होते हुए दिख रहे हैं।
देश और समाज को बचाना है तो हमें जाति, धर्म और लिंग आधारित आरक्षण के बजाए आर्थिक आधार पर आरक्षण का कानून बनवाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए। इसी में देश और समाज का हित है।...ॐ
हम रहे थे सन्त जब तक
पन्थ यह आसान था ।
जब चले सामान्य बनने
हर तरफ बेईमान था।।
अब तलक हम जी रहे थे
मन्दिरों के दान पर।
जब से उस दुनियाँ को छोड़ा
लोग पड़ गए जान पर ।।
कुछ समझ नहीं आता अब मैं
जाऊँ तो जाऊँ कहाँ।
अब नहीं इंसान का है
ठौर या इज्ज़त यहाँ।।