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मेरा मन यायावर (कविता संग्रह) रचना - प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द |
यूं गुमां न करो (गज़ल)
साथ में हो तो हँस के भी बोलो जरा।
दूर होते किसे कौन याद आएगा।।
पास में रह के भी दूर रहते हो क्यों।
मरने के बाद फिर न ये पल आएगा।।
साथ रहते मेरे पर ये मुँह फेर के।
बूरे पल में तेरे कौन काम आएगा।।
सोच लो हाल तेरा क्या होगा सनम।
जब ये दिल भी अचानक ही छोड़ जाएगा।।
तब ही कहता हूँ मैं यूं गुमां न करो।
यह जवानी तो एक दिन ढ़ल जाएगा।।
हर पहर आग बन कर के रहते होते हैं और क्यों?
वक्त की आँधियों में ये बुझ जाएगा।।
जी लो हँस कर ये पल जब तलक साथ है।
क्या पता साँस यह कब निकल जाएगा।।
साथ में हो तो हँस के भी बोलो जरा।
दूर होते किसे कौन याद आएगा।।
- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी
तू भी कर यायावरी (कविता)
खूब लिखी तूने हसरत, यार हँसने के लिए।
पर शरारत क्यों करेगा, कोई फँसने के लिए।।
वो जमाना अब नहीं, जब शायरों का जोर था।
दिल मचलता था समां तक, हुस्न का तब दौर था।।
अब अन्धेरा छा गया है, दिन में भी रात सा।
कुछ नहीं दिखता है अब, ईमान हो गया खाक सा।।
क्या हँसाऊं यार तुमको, बेदिलों के बीच में।
कैसे कलियों को खिलाऊं, बेबसी के बीच में।।
आइना है वक्त ही यह, खुद पे हँसने के लिए।
मत हँसो बेजा बनो, गम्भीर दुनियाँ के लिए।।
गर तुम्हें अच्छी लगे, मेरी मुकम्मल शायरी।
कुछ नया करने का प्रण ले, तू भी कर यायावरी।।
- (उदासी सन्त, कवि, पूर्व पत्रकार और समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द दास प्रसेनजीत सिंह महाराज द्वारा रचित कविता संग्रह "मेरा मन यायावर" से उद्धृत)
मासुम (भारत कविता)
बहुत मासुम लगती हो।
बहुत परेशान लगती हो।
झलकते आँख के आँसू
तेरे तकलीफ़ कहते हैं।।
सितम कुछ सह रही लेकिन
नहीं मुँह खोलती तुम हो।
मगर मैं अश्क से ही हूँ
पकड़ता नब्ज हर दिल का।
भले ही दर्द तुम सह लो
मगर यह छुप नहीं पाती।
किनारा जब नहीं मिलता
है किश्ती डूब यह जाती।।
मगर विश्वास तुम करना
प्रभू के नाम को जपना।
सभी दुख दूर होंगे ही
नहीं तो याद मुझे करना।।
अपना बनाऊँ किसको
चुपचाप आके तूने,
मुझे चादर ओढ़ा दिया।
सपनों में मैं था खोया।
तूने दिल को चुरा लिया।।
महफिल में जब मैं पूछा,
तूने बांहें छुरा लिया।
गलियों से जब मैं गुजरा,
तूने फिर क्यों बुला लिया।।
तेरे दिल में बात क्या थी
कभी तूने नहीं कहा।
पर जो तू चाहती थी
गजरों ने बता दिया।।
चुपचाप आके तूने
मुझे फिर से जो छुआ।
तेरे अधरों की सुरसुरी ने
मुझे पागल बना दिया।।
पर मैं जान बुझ कर
बेसुध सा पड़ा रहा।
तेरे गेसुओं के बादल
में गुपचुप छुपा रहा।।
पर जब आँख खोला
तब तुम डर चुकी थी।
पर ज्यों ही मुस्कुराया
शर्मा के हट चुकी थी।।
पर मैं जिद में अपने
फिर से खो गया था।
ईश्वर का नाम लेकर
भक्ति में रम गया था।।
इस बात से है देखा
तुम्हें छुप के आहें भरते।
खुली खिड़कियों पे आये
बादल से बातें करते।।
मुझे याद आज भी है
गजरों में तेरा सजना।
मेरा निष्ठुर बन के हटना
तेरा छुप-छुप कर के रोना।।
पर आज दुःख है इसका
तेरा प्यार पा सका न।
न तो राम को ही पाया
न मुकाम पा सका मैं।।
अब जब हूँ मैं अकेला
मन-मन्दिर ढ़ह गया है।
विश्वास अब रहा न
हर कोई गिर गया है।।
तब दिखता नहीं है कोई
दूर तलक मुझको।
किस पर करूँ भरोसा
अपना बनाऊँ किसको।।
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तू भी कर यायावरी
खूब लिखी तूने हसरत, यार हँसने के लिए।
पर शरारत क्यों करेगा, कोई फँसने के लिए।।
वो जमाना अब नहीं, जब शायरों का जोर था।
दिल मचलता था समां तक, हुस्न का तब दौर था।।
अब अन्धेरा छा गया है, दिन में भी रात सा।
कुछ नहीं दिखता है अब, ईमान हो गया खाक सा।।
क्या हँसाऊं यार तुमको, बेदिलों के बीच में।
कैसे कलियों को खिलाऊं, बेबसी के बीच में।।
आइना है वक्त ही यह, खुद पे हँसने के लिए।
मत हँसो बेजा बनो, गम्भीर दुनियाँ के लिए।।
गर तुम्हें अच्छी लगे, मेरी मुकम्मल शायरी।
कुछ नया करने का प्रण ले, तू भी कर यायावरी।।
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फरियादी
मर चुका इंसान यह जो दिख रहा तस्वीर में।
मुद्दतों के बाद आया आज है मेरे ख्वाब में।।
जिंदादिल था यह यहाँ जब दोस्त भी हजार थें।
पर ये मर कर जब से लौटा स्वप्न भी नाराज़ हैं।।
सो नहीं पाता कभी यह दिन में या रात में।
शून्य में कुछ ढूंढता है डूब कर दिन-रात ये।।
पर यहाँ क्या कर रहा है रूहों का संवादी बन।
पूर्वज़ों को न्याय क्यों दिलवा रहा फरियादी बन।।
जिस्म से निकला था कल भी पर नहीं ऊपर गया।
वंशज़ों के तन में आकर फिर यहीं पर रुक गया।।
तब ही इसको याद है बीते दिनों की दास्तां।
तब ही इस जीवन के लोगों से न रखता वास्ता।।
लाख कोशिश कर के भी कोई इसे न डिगा सका।
कारण है इसको है पता मरता नहीं कभी आत्मा।।
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नये प्रीत का गीत
(09:11:2019 / 12:28 am)
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मन की वीणा
मन की बतिया कोई न जाने
कही हुई बतिया भी न माने।
ऐसे में क्या करूं बता दे
मन की वीणा कोई बजा दे।।
सागर के तल सा मैं स्थिर
पर लहरों सा मचल रहा हूँ।
पर ये लहर नहीं मैं क्यों कि
मैं अथाह अविचल सागर हूँ।।
मैं लेखक हूँ मैं शायर हूँ
मोती मूँगों का गागर हूँ।
फिर भी दुनियाँ मुझे न चाहे
क्योंकि मैं कुम्भी नागर हूँ।।
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बेवफ़ा
देखा था तुम्हें जिस दिन मैने
समझा था कि तुम बड़ी भोली हो।
तुम हँसी तो हो, नादां भी कुछ
मनमोहनी और हमजोली हो।
यह सोच के दिल मैं दे बैठा
तेरे इश्क में पागल होकर मैं।
पर अब यह सोच के रोता हूँ
क्या देख के तुम से प्यार किया।
तुम नादां हो इसको तुम में
मैंने पहले ही देखा था।
पर जालिम हो और कातिल भी
इस को मैने नहीं समझा था।
आखिर तुम क्यों मेरे दिल में बस
मन मोह लिया दिल जीत लिया।
फिर क्या आखिर मजबूरी थी
यह दिल तूने यूं तोड़ दिया।
तुम्हें जहाँ भी रहना वहीं रहो
पर अब ऐसा कुछ मत करना।
वर्ना तेरे कारण नारी पर
फिर से कभी यकीं नहीं होगा।
नहीं इश्क करेंगे कोई कहीं
बर्बाद गुलिस्तां यह होगा।
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जन्म दिन
ये जनम दिन मुबारक तुम्हें हो प्रिय!
रोज़ दिल में जलाना खुशी के दीये।।
गर मुकद्दर में मेरा न मिलना लिखा।
भाव में शब्द बन कर ही आना प्रिय।।
शेर बनना तू मेरी या कविता मेरी।
तुझको गाकर ही खो जाऊँ तुझमे प्रिय।।
मैं हूँ शायर तुम्हारा तू कविता मेरी।
मेरी धड़कन में बस जाओ सरगम प्रिय।।
फिर से भारत को रचें
घर में बच्चे हैं बिलखते
बस दो रोटी के लिए।
दूध के बदले भात का भी
मार पीने के लिए।।
पर नहीं मिलता वह भी मुझको
क्यों कि हम कंगाल हैं।
फिर भी नेता रोज़ है कहता
देश मालामाल है।।
सबकी जेबों में सलाना
आय ऊपर चढ़ रहा है।
उसका ही परिणाम है देखो
पेट हमारा बढ़ रहा है।।
पर मुझको यह समझ न आता
क्या मैं देश का लाल नहीं?
गर हूँ भारत वासी तो क्यों
मेरे जेब में माल नहीं।।
क्यों नहीं दिखता है किसी को
मेरा सबसे बुरा हाल।
कहने को सवर्ण हैं हम
पर हम हैं सबसे कंगाल।।
घर में जो भी धन थे मेरे
देश के हित में दे दिया।
पर नहीं अब है अन्न भी घर में
देश ने हक सब छीन लिया।।
अब नहीं है जीने का भी
हक किसी इंसान को।
हर तरफ हैवान है दिखता
सुख मिलता बेईमान को।।
अब हमारा हाल यही है
कहीं नहीं सम्मान है।
और नहीं कुछ धन बचा है
बस बचा ईमान है।।
देह तो है पर माँस बिना हम
जीवित एक कंकाल हैं।
आँख धंस कर है समाया
भौं के नीचे माथ में।।
गाल दोनों मिल रहा है
मुँह में के ताल में।
पेट ये लगता सिल गया है
जैसे सूखे डाल में।।
फिर भी दर-दर ये मैं कहता
कोई मुझको काम दो।
पर नहीं कोई काम देता
कहता पहले दाम दो।।
जब नहीं कोई काम मिलता
फिर वहीं चल देता हूँ।
भीख अगर कुछ मिल जाता तो
उससे जान बचाता हूँ।।
क्या यही हम सोच कर के
देश हित सब कुछ लुटाये।
जो भी लाये थे कमा कर
देश के हित के लिए लगायें।।
कितने दुःख को झेल कर के
देश को एक बनाये थें।
गाँधी की बातों में आकर
धन सारा लुटाए थे।।
पर जिनको हमने ही बढ़ाया
उनसे ऐसा धोखा खाया।
कि है लगता ऐसा अब तो
देश ये अपना बना पराया।।
अब है भारत हाय कैसे
अपना हम स्वीकार लें।
छिन गया घर-बार सारा
क्या गुलामी मान लें।।
न रहा रहने को अब घर
न ही खेती की भूमि।
राह के फुटपाथ पर भी
कुछ जगह मिलता नहीं।।
गर कहीं हम गिर पड़े
तब भी नहीं मिलता सहारा।
क्या हमारे राज में था
ऐसा ही बिल्कुल नजारा।।
मैं समझता हूँ नहीं
किसी राज में बिल्कुल नहीं।
बल्कि सदा रक्षा किये
जन हित में सब अर्पित किये।।
फिर भी हमारा हाल यह क्यों
अब भी हम संज्ञान लें।
मिल के हम फिर जंग करें एक
फिर से भारत को रचें।।
- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास
नए अछूत🦜
हमको देखो हम सवर्ण हैं
भारत माँ के पूत हैं,
लेकिन दुःख है अब भारत में,
हम सब 'नए अछूत' हैं।
सारे नियम सभी कानूनोंऽ ने,
हमको ही मारा है;
भारत का निर्माता देखो,
अपने घर में हारा है।
नहीं हमारे लिए नौकरी,
नहीं सीट विद्यालय में;
ना अपनी कोई सुनवाई,
संसद और न्यायालय में।
हम भविष्य थे भारत माँ के,
आज बने हम भूत हैं;
बेहद दुःख है अब भारत में;
हम सब 'नए अछूत' हैं।
'दलित' महज़ आरोप लगा दे,
हमें जेल में जाना है;
हम-निर्दोष, नहीं हैं दोषी,
ये सबूत भी लाना है।
हम जिनको सत्ता में लाये,
छुरा उन्हींने भोंका है,
काले कानूनों की भट्ठी,
में हम सब को झोंका है।
किसको चुनें, किन्हें जितायें?
सारे ही यमदूत हैं;
बेहद दुःख है अब भारत में;
हम सब 'नए अछूत' हैं।
प्राण त्यागते हैं सीमा पर,
लड़ कर मरते हम ही हैं;
अपनी मेधा से भारत की,
सेवा करते हम ही हैं।
हर सवर्ण इस भारत माँ का,
एक अनमोल नगीना है;
अपने तो बच्चे-बच्चे का,
छप्पन इंची सीना है।
भस्म हमारी महाकाल से,
लिपटी हुई भभूत है;
लेकिन दुःख है अब भारत में,
हम सब 'नए अछूत' हैं।
देकर खून पसीना अपना,
इस गुलशन को सींचा है;
डूबा देश रसातल में जब,
हमने बाहर खींचा है।
हमने ही भारत भूमि में,
धर्म-ध्वजा लहराई है;
सोच हमारी नभ को चूमे
बातों में गहराई है।
हम हैं त्यागी, हम बैरागी,
हम ही तो अवधूत हैं;
बेहद दुःख है अब भारत में,
हम सब 'नए अछूत' हैं।
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🏺विश्वास🏺
अडिग विश्वास जब होगा।
प्रभू का साथ तब होगा।।
भले दुनियाँ तुम्हें छोड़े।
प्रभु तुमको न छोड़ेंगे।।
यकीं हो गर नहीं तुमको।
तो देखो कर के तुम भी ये।।
मगर यह तब ही होगा जब।
उन्हें तुम दिल से चाहोगे।।
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🌺 बेघर का लॉक डाउन 🌺
रहने को कोई घर नहीं
पर सारा जहाँ हमारा है।
पेट है खालीऽ वदन है नंगा
फिर भी मन मतवारा है।। 🇮🇷
प्रभु रखना नज़र उन पर,
जो महलों के दिवाने हैं।
सलामत रखना उनको तुम,
जो धंधों में सयाने हैं।। 🏠
तू मेरी छोड़ मैं क्या हूँ
मैं बेघर और अनाड़ी हूँ।
तू रखना ख्याल उनका ही
मैं उन सा नहीं खिलाड़ी हूँ।। 🎾
मेरा क्या मैं तो नंगा हूँ
बिमारी में भी चंगा हूँ।
भले ही मैं लगूं मैला
मगर मन से मैं गंगा हूँ।। 😍
मैं तन्हां हूँ भले लेकिन
मेरा मन साथ हरदम है।
अगर तन छिन गया तो भी
नहीं मुझको कोई गम है।।🛡️
है मन ही मेरा असली धन
ये जब तक साथ मेरे है।
नहीं मैं हार मानूंगा
तुम्हें हर बार चाहूँगा।
मगर तुमसे है एक विनती
जो मेरी कुछ नहीं सुनते
बस उनके दिल में तुम बस कर
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है जिनको ना कहीं कोई घर
जो अपनों के सताये हैं।
था जिनसे छिन चुका दौलत
क्या उनका हक दिला दोगे? 🐍
अगर तुम कर सको ऐसा
तो तुमको माथे पे रख लूं।
फिर अपनेऽ घर में रह कर के
खुद को लॉक डाउन कर लूं। 🏫🔐
मगर मैं जानता हूँ ये
यहाँ कुछ ऐसा न होगा।
जो कहते हम तुम्हारे हैं
हमेशा देंगे वे धोखा।। 😢😩
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ठाकरे सरकार
जिहादी सरकार में बने
कानून का परिणाम है,
कि देश प्रेमी और सैनिक
इस देश में बदनाम है।
जो हैं दुश्मन देश के वे
सीना ताने चल रहे,
पर जो सैनिक देश के थे,
देश में ही डर रहे।
चल रही है ऐसी आँधी
कि हवा भी मौन है,
तख्त से चिपका मराठी
फिर भी शासन गौण है।
रक्त की बून्दें बरसती
आये दिन बाजार में,
क्या पता आगे क्या होगा
ठाकरे सरकार में।
डर रहे क्यों वीर जो हैं
शासकों के पाप से,
देश पीछे जा रहा क्यों
पूछ अपने आप से। 😢
- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास
(उदासी सन्त, साहित्यकार एवं समाजसेवी)
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