सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

मेरा मन यायावर : कविता संग्रह



मेरा मन यायावर (कविता संग्रह)
रचना - प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द


 यूं गुमां न करो (गज़ल)

साथ में हो तो हँस के भी बोलो जरा।

दूर होते किसे कौन याद आएगा।। 

पास में रह के भी दूर रहते हो क्यों। 

मरने के बाद फिर न ये पल आएगा।।

साथ रहते मेरे पर ये मुँह फेर के। 

बूरे पल में तेरे कौन काम आएगा।। 

सोच लो हाल तेरा क्या होगा सनम। 

जब ये दिल भी अचानक ही छोड़ जाएगा।।

तब ही कहता हूँ मैं यूं गुमां न करो।

यह जवानी तो एक दिन ढ़ल जाएगा।।

हर पहर आग बन कर के रहते होते हैं और क्यों? 

वक्त की आँधियों में ये बुझ जाएगा।। 

जी लो हँस कर ये पल जब तलक साथ है।

क्या पता साँस यह कब निकल जाएगा।।

साथ में हो तो हँस के भी बोलो जरा।

दूर होते किसे कौन याद आएगा।। 

- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी 


तू भी कर यायावरी (कविता) 

खूब लिखी तूने हसरत, यार हँसने के लिए।

पर शरारत क्यों करेगा, कोई फँसने के लिए।।

वो जमाना अब नहीं, जब शायरों का जोर था।

दिल मचलता था समां तक, हुस्न का तब दौर था।।

अब अन्धेरा छा गया है, दिन में भी रात सा।

कुछ नहीं दिखता है अब, ईमान हो गया खाक सा।।

क्या हँसाऊं यार तुमको, बेदिलों के बीच में।

कैसे कलियों को खिलाऊं, बेबसी के बीच में।।

आइना है वक्त ही यह, खुद पे हँसने के लिए।

मत हँसो बेजा बनो, गम्भीर दुनियाँ के लिए।।

गर तुम्हें अच्छी लगे, मेरी मुकम्मल शायरी।

कुछ नया करने का प्रण ले, तू भी कर यायावरी।


- (उदासी सन्त, कवि, पूर्व पत्रकार और समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द दास प्रसेनजीत सिंह महाराज द्वारा रचित कविता संग्रह "मेरा मन यायावर" से उद्धृत) 


मासुम (भारत कविता) 

बहुत मासुम लगती हो।

बहुत परेशान लगती हो।

झलकते आँख के आँसू

तेरे तकलीफ़ कहते हैं।। 

सितम कुछ सह रही लेकिन

नहीं मुँह खोलती तुम हो। 

मगर मैं अश्क से ही हूँ

पकड़ता नब्ज हर दिल का।

भले ही दर्द तुम सह लो

मगर यह छुप नहीं पाती।

किनारा जब नहीं मिलता

है किश्ती डूब यह जाती।। 

मगर विश्वास तुम करना

प्रभू के नाम को जपना।

सभी दुख दूर होंगे ही

नहीं तो याद मुझे करना।।


अपना बनाऊँ किसको 

चुपचाप आके तूने, 

मुझे चादर ओढ़ा दिया। 

सपनों में मैं था खोया।

तूने दिल को चुरा लिया।।


महफिल में जब मैं पूछा, 

तूने बांहें छुरा लिया।

गलियों से जब मैं गुजरा, 

तूने फिर क्यों बुला लिया।।


तेरे दिल में बात क्या थी

कभी तूने नहीं कहा।

पर जो तू चाहती थी 

गजरों ने बता दिया।।


चुपचाप आके तूने

मुझे फिर से जो छुआ।

तेरे अधरों की सुरसुरी ने

मुझे पागल बना दिया।।


पर मैं जान बुझ कर

बेसुध सा पड़ा रहा।

तेरे गेसुओं के बादल 

में गुपचुप छुपा रहा।।


पर जब आँख खोला

तब तुम डर चुकी थी।

पर ज्यों ही मुस्कुराया 

शर्मा के हट चुकी थी।।


पर मैं जिद में अपने

फिर से खो गया था।

ईश्वर का नाम लेकर

भक्ति में रम गया था।। 


इस बात से है देखा

तुम्हें छुप के आहें भरते।

खुली खिड़कियों पे आये

बादल से बातें करते।।


मुझे याद आज भी है

गजरों में तेरा सजना।

मेरा निष्ठुर बन के हटना 

तेरा छुप-छुप कर के रोना।।


पर आज दुःख है इसका

तेरा प्यार पा सका न।

न तो राम को ही पाया

न मुकाम पा सका मैं।।


अब जब हूँ मैं अकेला

मन-मन्दिर ढ़ह गया है।

विश्वास अब रहा न

हर कोई गिर गया है।।


तब दिखता नहीं है कोई

दूर तलक मुझको।

किस पर करूँ भरोसा

अपना बनाऊँ किसको।।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

तू भी कर यायावरी

खूब लिखी तूने हसरत, यार हँसने के लिए।

पर शरारत क्यों करेगा, कोई फँसने के लिए।।

वो जमाना अब नहीं, जब शायरों का जोर था।

दिल मचलता था समां तक, हुस्न का तब दौर था।।

अब अन्धेरा छा गया है, दिन में भी रात सा।

कुछ नहीं दिखता है अब, ईमान हो गया खाक सा।।

क्या हँसाऊं यार तुमको, बेदिलों के बीच में।

कैसे कलियों को खिलाऊं, बेबसी के बीच में।।

आइना है वक्त ही यह, खुद पे हँसने के लिए।

मत हँसो बेजा बनो, गम्भीर दुनियाँ के लिए।।

गर तुम्हें अच्छी लगे, मेरी मुकम्मल शायरी।

कुछ नया करने का प्रण ले, तू भी कर यायावरी।।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


फरियादी

मर चुका इंसान यह जो दिख रहा तस्वीर में। 

मुद्दतों के बाद आया आज है मेरे ख्वाब में।। 

जिंदादिल था यह यहाँ जब दोस्त भी हजार थें। 

पर ये मर कर जब से लौटा स्वप्न भी नाराज़ हैं।।

सो नहीं पाता कभी यह दिन में या रात में।

शून्य में कुछ ढूंढता है डूब कर दिन-रात ये।।

पर यहाँ क्या कर रहा है रूहों का संवादी बन।

पूर्वज़ों को न्याय क्यों दिलवा रहा फरियादी बन।। 

जिस्म से निकला था कल भी पर नहीं ऊपर गया।

वंशज़ों के तन में आकर फिर यहीं पर रुक गया।।

तब ही इसको याद है बीते दिनों की दास्तां। 

तब ही इस जीवन के लोगों से न रखता वास्ता।।

लाख कोशिश कर के भी कोई इसे न डिगा सका।

कारण है इसको है पता मरता नहीं कभी आत्मा।। 


🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

नये प्रीत का गीत

(09:11:2019 / 12:28 am) 

कोई शिक्वा करूं
तो किससे करूं? 
जब दर्द भी है मेरा 
दर्द दाता भी मेरा।। 
बस यही सोच कर
दर्द को मैंने पी ली।
पर नहीं दिख रहा
कोई सहारा मेरा।।
फिर ये कैसे कहूं? 
दर्द अपना ही है।
जिसने इसको दिया
वो भी अपना ही है।।
ये जो दर्द है मिला
मरने देता नहीं। 
दर्द की टीस से 
जीने देता नहीं।।
ऐसे में क्या करूँ? 
राह दिखता नहीं।
मौन कोने में छुप
दिल सिसकता है क्यूं?
जिसने दर्द दिया
उसको भुला न क्यों?
जो भी सपने था देखा
वो मिटता न क्यों?
अब तो ठाना है दिल से 
भुलाऊँगा सबको।
जो दिल का हो सच्चा
ढूँढ लाऊँगा उसको।। 
जो भी रिश्ते हैं झूठे 
क्यों न उसको भूलूं? 
क्यों न जख्मी दिल पे
मैं मलहम लगा लूं? 
क्यों न उदास दिल को
फिर से जवां बना लूं? 
क्यों दर्द सह रहा हूँ
क्यों खुद को मैं जलाऊं? 
क्यों नहीं प्रीत का फिर
मैं नये गीत गाऊं? 

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

मन की वीणा

मन की बतिया कोई न जाने

कही हुई बतिया भी न माने।

ऐसे में क्या करूं बता दे

मन की वीणा कोई बजा दे।। 

सागर के तल सा मैं स्थिर

पर लहरों सा मचल रहा हूँ।

पर ये लहर नहीं मैं क्यों कि

मैं अथाह अविचल सागर हूँ।। 

मैं लेखक हूँ मैं शायर हूँ

मोती मूँगों का गागर हूँ।

फिर भी दुनियाँ मुझे न चाहे

क्योंकि मैं कुम्भी नागर हूँ।। 

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

बेवफ़ा

देखा था तुम्हें जिस दिन मैने

समझा था कि तुम बड़ी भोली हो।

तुम हँसी तो हो, नादां भी कुछ 

मनमोहनी और हमजोली हो।

यह सोच के दिल मैं दे बैठा 

तेरे इश्क में पागल होकर मैं। 

पर अब यह सोच के रोता हूँ 

क्या देख के तुम से प्यार किया। 

तुम नादां हो इसको तुम में

मैंने पहले ही देखा था। 

पर जालिम हो और कातिल भी

इस को मैने नहीं समझा था। 

आखिर तुम क्यों मेरे दिल में बस

मन मोह लिया दिल जीत लिया। 

फिर क्या आखिर मजबूरी थी

यह दिल तूने यूं तोड़ दिया।

तुम्हें जहाँ भी रहना वहीं रहो

पर अब ऐसा कुछ मत करना।

वर्ना तेरे कारण नारी पर

फिर से कभी यकीं नहीं होगा।

नहीं इश्क करेंगे कोई कहीं

बर्बाद गुलिस्तां यह होगा।


🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

जन्म दिन

ये जनम दिन मुबारक तुम्हें हो प्रिय! 

रोज़ दिल में जलाना खुशी के दीये।। 

गर मुकद्दर में मेरा न मिलना लिखा। 

भाव में शब्द बन कर ही आना प्रिय।।

शेर बनना तू मेरी या कविता मेरी।

तुझको गाकर ही खो जाऊँ तुझमे प्रिय।।

मैं हूँ शायर तुम्हारा तू कविता मेरी।

मेरी धड़कन में बस जाओ सरगम प्रिय।।



 फिर से भारत को रचें

घर में बच्चे हैं बिलखते

बस दो रोटी के लिए।

दूध के बदले भात का भी 

मार पीने के लिए।।

पर नहीं मिलता वह भी मुझको 

क्यों कि हम कंगाल हैं।

फिर भी नेता रोज़ है कहता

देश मालामाल है।।

सबकी जेबों में सलाना

आय ऊपर चढ़ रहा है।

उसका ही परिणाम है देखो 

पेट हमारा बढ़ रहा है।।

पर मुझको यह समझ न आता

क्या मैं देश का लाल नहीं? 

गर हूँ भारत वासी तो क्यों 

मेरे जेब में माल नहीं।।

क्यों नहीं दिखता है किसी को

मेरा सबसे बुरा हाल। 

कहने को सवर्ण हैं हम

पर हम हैं सबसे कंगाल।।


घर में जो भी धन थे मेरे

देश के हित में दे दिया।

पर नहीं अब है अन्न भी घर में

देश ने हक सब छीन लिया।। 

अब नहीं है जीने का भी

हक किसी इंसान को।

हर तरफ हैवान है दिखता

सुख मिलता बेईमान को।। 

अब हमारा हाल यही है

कहीं नहीं सम्मान है।

और नहीं कुछ धन बचा है

बस बचा ईमान है।।

देह तो है पर माँस बिना हम 

जीवित एक कंकाल हैं।

आँख धंस कर है समाया

भौं के नीचे माथ में।। 

गाल दोनों मिल रहा है

मुँह में के ताल में।

पेट ये लगता सिल गया है 

जैसे सूखे डाल में।।


फिर भी दर-दर ये मैं कहता

कोई मुझको काम दो।

पर नहीं कोई काम देता

कहता पहले दाम दो।।

जब नहीं कोई काम मिलता

फिर वहीं चल देता हूँ। 

भीख अगर कुछ मिल जाता तो

उससे जान बचाता हूँ।।

क्या यही हम सोच कर के

देश हित सब कुछ लुटाये।

जो भी लाये थे कमा कर

देश के हित के लिए लगायें।।

कितने दुःख को झेल कर के

देश को एक बनाये थें। 

गाँधी की बातों में आकर

धन सारा लुटाए थे।।

पर जिनको हमने ही बढ़ाया

उनसे ऐसा धोखा खाया।

कि है लगता ऐसा अब तो

देश ये अपना बना पराया।।


अब है भारत हाय कैसे 

अपना हम स्वीकार लें।

छिन गया घर-बार सारा

क्या गुलामी मान लें।। 

न रहा रहने को अब घर

न ही खेती की भूमि।

राह के फुटपाथ पर भी

कुछ जगह मिलता नहीं।।

गर कहीं हम गिर पड़े

तब भी नहीं मिलता सहारा।

क्या हमारे राज में था

ऐसा ही बिल्कुल नजारा।। 

मैं समझता हूँ नहीं

किसी राज में बिल्कुल नहीं।

बल्कि सदा रक्षा किये

जन हित में सब अर्पित किये।।

फिर भी हमारा हाल यह क्यों

अब भी हम संज्ञान लें। 

मिल के हम फिर जंग करें एक

फिर से भारत को रचें।।

- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास

 

नए अछूत🦜

हमको देखो हम सवर्ण हैं

भारत माँ के पूत हैं,

लेकिन दुःख है अब भारत में,

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


सारे नियम सभी कानूनोंऽ ने,

हमको ही मारा है;

भारत का निर्माता देखो,

अपने घर में हारा है। 

नहीं हमारे लिए नौकरी,

नहीं सीट विद्यालय में;

ना अपनी कोई सुनवाई,

संसद और न्यायालय में। 

हम भविष्य थे भारत माँ के,

आज बने हम भूत हैं;

बेहद दुःख है अब भारत में;

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


'दलित' महज़ आरोप लगा दे,

हमें जेल में जाना है;

हम-निर्दोष, नहीं हैं दोषी,

ये सबूत भी लाना है। 

हम जिनको सत्ता में लाये,

छुरा उन्हींने भोंका है,

काले कानूनों की भट्ठी,

में हम सब को झोंका है। 

किसको चुनें, किन्हें जितायें?

सारे ही यमदूत हैं;

बेहद दुःख है अब भारत में;

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


प्राण त्यागते हैं सीमा पर,

लड़ कर मरते हम ही हैं;

अपनी मेधा से भारत की,

सेवा करते हम ही हैं। 

हर सवर्ण इस भारत माँ का,

एक अनमोल नगीना है;

अपने तो बच्चे-बच्चे का,

छप्पन इंची सीना है। 

भस्म हमारी महाकाल से,

लिपटी हुई भभूत है;

लेकिन दुःख है अब भारत में,

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


देकर खून पसीना अपना,

इस गुलशन को सींचा है;

डूबा देश रसातल में जब,

हमने बाहर खींचा है। 

हमने ही भारत भूमि में,

धर्म-ध्वजा लहराई है;

सोच हमारी नभ को चूमे

बातों में गहराई है। 

हम हैं त्यागी, हम बैरागी,

हम ही तो अवधूत हैं;

बेहद दुःख है अब भारत में,

हम सब 'नए अछूत' हैं।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


🏺विश्वास🏺

अडिग विश्वास जब होगा।

प्रभू का साथ तब होगा।। 

भले दुनियाँ तुम्हें छोड़े।

प्रभु तुमको न छोड़ेंगे।। 

यकीं हो गर नहीं तुमको।

तो देखो कर के तुम भी ये।। 

मगर यह तब ही होगा जब।

उन्हें तुम दिल से चाहोगे।।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


🌺 बेघर का लॉक डाउन 🌺

रहने को कोई घर नहीं 

पर सारा जहाँ हमारा है।

पेट है खालीऽ वदन है नंगा

फिर भी मन मतवारा है।। 🇮🇷


प्रभु रखना नज़र उन पर,

जो महलों के दिवाने हैं।

सलामत रखना उनको तुम,

जो धंधों में सयाने हैं।। 🏠


तू मेरी छोड़ मैं क्या हूँ

मैं बेघर और अनाड़ी हूँ।

तू रखना ख्याल उनका ही

मैं उन सा नहीं खिलाड़ी हूँ।। 🎾


मेरा क्या मैं तो नंगा हूँ

बिमारी में भी चंगा हूँ।

भले ही मैं लगूं मैला 

मगर मन से मैं गंगा हूँ।। 😍


मैं तन्हां हूँ भले लेकिन 

मेरा मन साथ हरदम है।

अगर तन छिन गया तो भी

नहीं मुझको कोई गम है।।🛡️


है मन ही मेरा असली धन

ये जब तक साथ मेरे है।

नहीं मैं हार मानूंगा

तुम्हें हर बार चाहूँगा।


मगर तुमसे है एक विनती

जो मेरी कुछ नहीं सुनते

बस उनके दिल में तुम बस कर

....... *......... *......... *........ 


है जिनको ना कहीं कोई घर

जो अपनों के सताये हैं।

था जिनसे छिन चुका दौलत

क्या उनका हक दिला दोगे? 🐍


अगर तुम कर सको ऐसा

तो तुमको माथे पे रख लूं।

फिर अपनेऽ घर में रह कर के

खुद को लॉक डाउन कर लूं।  🏫🔐


मगर मैं जानता हूँ ये

यहाँ कुछ ऐसा न होगा।

जो कहते हम तुम्हारे हैं

हमेशा देंगे वे धोखा।। 😢😩


https://www.facebook.com/groups/1431646760273259/permalink/2734235306681058/

🌺🌻🌺🌹🌺🌻🌺🌹🌺🌻🌺


ठाकरे सरकार

जिहादी सरकार में बने

कानून का परिणाम है,

कि देश प्रेमी और सैनिक

इस देश में बदनाम है।

जो हैं दुश्मन देश के वे

सीना ताने चल रहे,

पर जो सैनिक देश के थे,

देश में ही डर रहे।

चल रही है ऐसी आँधी

कि हवा भी मौन है,

तख्त से चिपका मराठी

फिर भी शासन गौण है। 

रक्त की बून्दें बरसती

आये दिन बाजार में,

क्या पता आगे क्या होगा

ठाकरे सरकार में।

डर रहे क्यों वीर जो हैं 

शासकों के पाप से,

देश पीछे जा रहा क्यों

पूछ अपने आप से। 😢


- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास

 (उदासी सन्त, साहित्यकार एवं समाजसेवी)

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


कौशिक कृत महर्षि भृगु साठिका


 । । महर्षि भृगु साठिका ।।

जिनके सुमिरन से मिटै, सकल कलुष अज्ञान।

सो गणेश शारद सहित, करहु मोर कल्यान।।

वन्दौं सबके चरण रज, परम्परा गुरुदेव।

महामना, सर्वेश्वरा, महाकाल मुनिदेव। ।

बलिश्वर पद वन्दिकर, मुनि श्रीराम उर धारि।

वरनौ ऋषि भृगुनाथ यश, करतल गत फल चारि। ।

🏺🌺🌹🌺🏺🌺🌹🌺🏺🌺🌹🌺🏺

जय भृगुनाथ योग बल आगर।
सकल सिद्धिदायक सुख सागर।। 1।।

विश्व सुमंगल नर तनुधारी।
शुचि गंग तट विपिन विहारी।।2।।

भृगुक्षेत्र सुरसरि के तीरा।
बलिया जनपद अति गम्भीरा। ।3।।

सिद्ध तपोधन दर्दर स्वामी।
मन-वच-क्रम गुरु पद अनुगामी। ।4।।

तेहि समीप भृग्वाश्रम धामा।
भृगुनाथ है पूरन कामा। । 5।।

स्वर्ग धाम निकट अति भाई।
एक नगरिका सुषा सुहाई। । 6।।

ऋषि मरीचि से उद्गम भाई।
यही महॅ कश्यप वंश सुहाई।।7।।

ता कुल भयऊ प्रचेता नेमी।
होय विनम्र संत सुर सेवी।।8।।

तिनकी भार्या वीरणी रानी।
गाथा वेद-पुरान बखानी। ।9।।

तिनके सदन युगल सुत होई।
जनम-जनम के अघ सब खोई। ।10।।

भृगु अंगिरा है दोउ नामा।
तेज प्रताप अलौकिक धामा।। 11।।

तरुण अवस्था प्रविसति भयऊ।
गुरु सेवा में मन दोउ लयऊ। ।12।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागो।
आत्मज्ञान होवन है लागो।।13।।

परम वीतराग ब्रह्मचारी।
मातु समान लखै पर नारी।।14।।

कंचन को मिट्टी करि जाना।
समदर्शी तुम्ह ज्ञान निधाना।।15।।

दैत्यराज हिरण्य की कन्या।
कोमल गात नाम था दिव्या।।16।।

भृगु-दिव्या की हुई सगाई।
ब्रह्मा-वीरणी मन हरसाई। ।17।।

दानव राज पुलोमा भी आये।
निज सुता पौलमी को लाये।।18।।

सिरजनहार कृपा अब कीजै।
भृगु-पौलमी ब्याह कर लीजै।।19।।

ब्रह्मलोक में खुशियां छाई।
तीनों लोक बजी शहनाई।।20।।

दिव्या-भृगु के सुत दो होई।
त्वष्टा, शुक्र नाम कर जोई।।21।।

भृगु-पौलमी कर युगल प्रमाना।
च्यवन, ऋचीक है जिनके नामा।।22।।

काल कराल समय नियराई।
देव-दैत्य मॅह भई लड़ाई। ।23।।

ब्रह्मानुज विष्णु कर कामा।
देव गणों का करें कल्याना।। 24।।

भृगु भार्या दिव्या गई मारी।
चारु दिशा फैली अँधियारी।।25।।

सुषा छोड़ि मंदराचल आये।
ऋषिन जुटायू से यज्ञ कराये।।26।।

ऋषियन मॅह चिन्ता यह छाई।
कवन बड़ा देवन मॅह भाई।। 27।।

ऋषिन-मुनिन मन जागी इच्छा।
कहे भृगु के करेें परीक्षा।।28।।

गये पितृलोक ब्रह्मा नन्दन।
जहाँ विराज रहे चतुरानन।।29।।

ऋषि-मुनि कारन देव सुखारी।
तिनके कोऊ नाही पुछारी।।30।।

शाप दियो पितु को भृगुनाथा।
ऋषि-मुनिजन का ऊँचा माथा।।31।।

ब्रह्म लोक महिमा घटि जाही।
ब्रह्मा पूज्य होही अब नाही।।32।।

गये शिवलोक भृगु आचारी।
जहाँ विराजत है त्रिपुरारी।।33।।

रुद्रगणों ने दिया भगाई।
भृगु मुनि तब गये रिसिआई।। 34।।

शिव को घोर तामसी माना।
जिनसे हो  सबके कल्याना।।35।।

कुपित भयउ कैलाश विहारी।
रुद्रगणों को तुरत निकारी।।36।।

कर जोरे विनती सब कीन्हा।
मन मुसुकाई आपु चल दीन्हा।।37।।

शिवलोक उत्तर दिशि भाई।
विष्णु लोक अति दिव्य सुहाई।।38।।

क्षीर सागर में करत विहारा।
लक्ष्मी संग जग पालनहारा।।39।।

लीला देखि मुनि गए रिसियाई।
कैसे जगत चले रे भाई।।40।।

विष्णु वक्ष पर कीन्ह प्रहारा।
तीनहूं लोक मचे हहकारा।।41।।

विष्णु ने तब पद गह लीन्हा।
कहा नाथ आप भल कीन्हा।।42।।

आत्म स्वरुप विज्ञ पहचाना।
महिमामय विष्णु को माना।।43।।

दण्डाचार्य मरीचि मुनि आये।
भृगु मुनि को वो दण्ड सुनाये।।44।।

तुम्हने कियो त्रिदेव अपमाना।
नहि कल्यान काल नियराना।।45।।

पाप विमोचन एक अधारा।
विमुक्त भूमि गंगा की धारा।।46।।

हाथ जोरि विनती मुनि कीन्हा।
विमुक्त भूमि का देहू चीन्हा।।47।।

मुदित मरिचि बोले मुसकाई।
तीरथ भ्रमन करौं तुम्ह सांई।।48।।

जहाँ गिरे मृगछाल तुम्हारी।
समझौ भूमि पाप से तारी।।49।।

भ्रमनत भृगुमुनि बलिया आये।
सुरसरि तट पर धूनि रमाये।।50।।

कटि से भू पर गिरी मृगछाला।
भुज अजान बाल घुँघराला।51।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागे।
विष्णु नाम जप करन लागे।।52।।

सतयुग के वो दिन थे न्यारे।
दर्दर चेला भृगु के प्यारे।।53।।

दर्दर से सरयू मँगवाये।
यहाँ भृगुमुनि यज्ञ कराये।।54।

गंगा-सरयू संगम अविनाशी।
संगम कार्तिक पूरनमासी।।55।।

जुटे करोड़ो देव देह धारी।
अचरज करन लगे नर-नारी।।56।।

जय-जय भृगुमुनि दीन दयाला।
दया सुधा बरसेहूं सब काला।।57।।

सब संकट पल माहि बिलावै।
जे धरि ध्यान हृदय गुन गावैं।।58।।

सब संकल्प सिद्ध हो ताके।
जो जन चरण-शरण गह आके।।59।।

परम दयामय हृदय तुम्हारो।
शरणागत को शीघ्र उबारो।।60।।

आरत भक्तन के हित भाई।
कौशिकेय यह चरित बनाई।।61।। 

🏺🌷🌺🌷🏺🌷🌺🌷🏺🌷🌺🌷🏺

भृगु संहिता रची करि, भक्तन को सुख दीन्ह।

दर्दर को आशीष दे, आपु गमन तब कीन्ह।।

पावन संगम तट मह, कीन्ह देह का त्याग।

माई बन्दी के भक्तन को, देहू अमित वैराग।।

दियो समाधि अवशेष की, भृग्वाश्रम निज धाम।

कर दर्शन भृगु धाम के, सिद्व होय सब काम।

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कुम्भोवर्थो मा वयशिष्ठा यज्ञा युवे स्यनतिषिक्त

... संपादन जारी 


वैदिक और पौराणिक कथाओं में वर्णित सर्वमान्य पात्र महर्षि भृगु का जन्म २.५ लाख ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (सम्भवतः ओमान या वर्तमान ईरान) में हुआ था। ये आदि ब्रह्मा के पुत्र थे | ये अपने माता-पिता के सहोदर दो भाईयों में छोटे भाई थे। इनके बड़े भाई अंगिरा ऋषि थे। जिनके पुत्र बृहस्पति जी देवगणों के गुरु और कच के पिता थे। इन्होंने हिमालय के भृृगुप्रश्रवण नामक स्थान पर विश्व का पहला ज्योतिषिय ग्रन्थ "भृगु संहिता" की रचना किया थाा। कई जगहों पर भार्गव संहिता के नाम से भी विख्यात इस ग्रन्थ के लोकार्पण तथा गंगा और सरयू नदि के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ऋषि ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में ददरी मेला प्रारम्भ किया था। 


श्री दिव्या भृगु मन्दिर


महर्षि भृगु :
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महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में इन्हें आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी परम्परागत शिल्प दक्षता से ये भी जगत में विख्यात हुए।

महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने खम्भात की खाड़ी में स्थित भड़ौंच (गुजरात) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। राजा शर्याति को पुत्र नहीं था, इसके कारण भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिणी क्षेत्र में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ और भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। कच्छ की खाड़ी इसी भृगुुकच्छ के पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित है तथा भारतीय राज्य गुजरात में स्थित भड़ौच नामक जगह पौराणिक नगर भृगुकच्छ का ही अपभ्रंश है। इसी भड़ौच में नर्मदा नदी के तट पर प्राचीन भृगु मन्दिर बना हुआ है।

महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह मघवा और महेन्द्र के नाम से विख्यात विश्वेन्द्र कौशिक गाधि की एकलौती पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में देकर किया था। इससे भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण में स्थित राजा गाधि के ही राज्य में स्थित गाधिपुरी नामक क्षेत्र (उत्तर प्रदेश के वर्तमान बागी बलिया जिला) में आ गये थे।

महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों में आक्रोश पनप रहा था। जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक ब्रह्माजी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था। इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में  विष्णु जी ने उनकी पहली पत्नी हिरण्ययकशिपु नन्दिनी (पुत्री) देवी दिव्या को मार डाला। जिससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने श्री विष्णु जी से सम्बन्ध खत्म कर लिये। भृगु ऋषि के द्वारा विष्णु को अपमानित कर के त्याग देने की घटना ही ग्रन्थों में भृगु ऋषि के द्वारा विष्णु को लात मारना कहलाता है। 

इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के छोटे भाई और विष्णु जी के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिणी भाग में जाकर रहें। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे। परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर (पर्शिया, ईरान) से अपनी दूसरी पत्नी पौलोमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान बलिया और गाजीपुर का इलाका) में आ गये।

महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने का दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में भी मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण और श्रीमद्भागवत के विभिन्न खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था। जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का भी जन्म हुआ था। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योगशक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी। वह दैत्यों की सेना के मृत सैनिकों को अपने योगबल से जीवित कर देती थी। जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया था। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान ने विष्णु को शाप देते हुए कहा था कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर के सुमेरु (पर्वतराज हिमाचल) नन्दिनी गंगा के तट पर स्थित क्षेत्र में चले गए और वहीं पर तमसा देवी को जन्म दिये। अर्थात तमसा नदी की सृष्टि किये।

पद्म पुराण के उपसंहार खण्ड की कथा के अनुसार मन्दराचल पर्वत हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है? देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया था।

त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिमी भाग में स्थित कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुंचे, उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान शंकर से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया।

यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक (सुषानगर, पर्शिया, ईरान) में ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।

भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी के पास स्थित बन्दी-रमा नामक स्थान पर स्थित पहाड़ी (शेषनाग) पर अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी देवी के साथ विहार कर रहे थे। उनसे मिलने की इच्छा जताने पर विष्णु के सेवकों ने बताया कि अभी वे सो रहे हैं। इस पर वे विष्णलि जी के जागने का इन्तजार करने लगे। लेकिन काफ़ी समय तक इन्तजार करने पर भी जब विष्णु जी ने उनकी ओर नहीं देखा तो महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आया हुआ देख कर ही विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। इस अपमान से उन्हें अपनी पहली पत्नी हैरण्य दिव्या देवी की विष्णु के द्वारा हत्या करने की घटना याद आ गई। 

अपने दामाद के द्वारा किये जा रहे तिरस्कार से क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने अपने दाहिने पैर का आघात श्री विष्णु जी की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस आचरण पर उनकी पुत्री लक्ष्मी जो श्रीहरि के चरण दबा रही थी कुपित हो उठी। कहते हैं कि इस घटना से क्षुब्ध हुए श्रीविष्णु जी ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और शापित होने के भय से अपनी भूल के लिए माफ़ी माँगते हुए कहा कि हे भगवन्! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। इससे सन्तहृदयी महर्षि भृगु अपने व्यवहार से लज्जित तो हुए ही उनका क्रोध भी शान्त हो गया। अपने दामाद में हुए इस हृदय परिवर्तन से प्रसन्न होकर उन्होंने श्रीहरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ और सतोगुणी घोषित कर दिया।

ब्रह्मर्षि भृगु जी के द्वारा लिए गए त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी हुई है। वहीं वेदों को विभाजित कर के पुराणों की रचना करने वालों ने निर्दोष भृगु ऋषि की छवि को खराब करने के लिए जानबुझ कर कुछ ऐसे आख्यान गढ़ दिये जिससे भृगुवंशियों को नीचा दिखाया जा सके। इसमें लेखकों की बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी हुई थी। अपने उपेक्षा करने वाले को भी क्षमा कर देने वाले भृगु की छवि खराब करने के लिए इनकी लोकप्रियता से जलने वालों ने एक कहावत रच दी - 

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।

का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात।।

इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, और असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्रगणों और शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में आदित्यों के नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे। उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्य-अत्रि, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ में च्यवन तथा गाधिपुरी (भारत के उत्तर प्रदेश में स्थित गाजीपुर-बलिया का क्षेत्र) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा से हिमालय के दक्षिणी भाग में रहने वाले भृगुवंशियों की सहायता से श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लिया जाने लगा। भार्गवों की सहायता और आशिर्वाद से हिमालय पार के सूर्य, मङ्गल और शनि आदि देवों को प्रभुत्व और सम्मान (मान्यता) दिया जाने लगा।

पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने पश्चाताप करने के लिए अनवरत यात्रा (उदासीन यात्रा) करने की सजा सुनाते हुए बाँस की एक छड़ी देकर यह निर्देश दिया कि जिस धरा पर इस बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े, उसी धरा को सबसे पवित्र मान कर प्रवास करेंगे और वहीं पर विष्णु सहस्त्रनाम का जप करेंगे तब ही आप अपने पूर्व पद पर पुनः आसीन होंगे और आपके इस पाप का मोचन होगा। 

अपने धाम को त्याग कर अनिश्चित और अज्ञात धाम की तलाश में महर्षि भृगु भगवान के द्वारा आरम्भ की गयी यही यात्रा उदासीन यात्रा कहलाया। त्रेता युग में प्रभु श्री रामचन्द्र जी को भी उदासीन यात्रा के लिए जाना पड़ा था। वनवास के लिए अयोध्या को छोड़ते समय अनिश्चित गंतव्य की ओर प्रस्थान करने के समय की स्थिति का उल्लेख करते हुए संत तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है "तापस वेश सुवेश उदासी, चौदह वरष राम वनवासी।।" अर्थात् उदासी तपस्वी की तरह सुन्दर वेश धारण कर के प्रभु श्री रामचन्द्र जी को चौदह वर्षों तक वन में ही वास करना होगा। उदासी पन्थ के अनुयायी अपने घर, परिवार और समाज से कटे होने पर भी धर्म का त्याग नहीं करने वाले लोग होते हैं जो। भूमिहीन और बेघर होकर अपनी मूल भूमि से विस्थापित होकर भी धर्म का परित्याग नहीं करने वाले लोग होते हैं। अतः ऐसे लोग सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के लिए पूजनीय होते हैं। 

उदासीन होने के लिए मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उत्तर प्रदेश) के गंगा तट पर पहुँचते ही उनकी छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। इससे वे समझ गए कि अब उनकी यात्रा रुकने वाली है। संयोगवश एक दिन गङ्गा नदी के किनारे स्थित वन में विचरण करने के दौरान उन्हें जोरों की प्यास लगी। नदी के जल से प्यास बुझा कर जैसे ही वहाँ से प्रस्थान करना चाहे कमर में बँधी हुई उनकी मृगछाला ढ़िली होकर भूमि पर गिर गई। इससे वे समझ गए कि इसी जगह पर हमें प्रवास करना है। फिर वे गङ्गा नदी के उस क्षेत्र को अविमुक्त क्षेत्र समझ कर प्रवास करने के लिए कुटिया बनायें और तपस्या में लीन हो गये। कालान्तर में यही क्षेत्र महर्षि भृगु के नाम से भृगुक्षेत्र कहलाया। वर्तमान में इसी भूमि पर स्थित बागी बलिया (उत्तर प्रदेश, भारत) नामक नगर बस गया, जो स्वतंत्रता संग्राम में प्रथम आजाद जिला के नाम से जाना जाता है।

महर्षि भृगु के जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक अधूरी और अपूर्ण जानकारी के कारण पाखण्डी और आडम्बरवादी न बनें, बल्कि सत्य को स्वीकार कर के उदासी धर्म के मार्ग पर चलते हुए स्वविवेक का प्रयोग कर सके। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए पौराणिक कथाओं के लेखकों ने उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किया है, जिसके कारण भगवान भृगु जैसे लोगों के लिए भी शिव पुराण और हरिवंश पुराण में अपमान जनक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके कारण भृगुवंशियों को भी कभी-कभी अपमानित होना पड़ जाता है। इसके कारण कभी-कभी तो ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है जो संग्राम और महासंग्राम का भी कारण बन जाता है। वृत्रासुर के द्वारा कौशिकों के देश में आने वाले जल प्रवाह के मार्ग को अवरुद्ध करने के कारण जब उनके राज्य की नदियाँ सूखने लगी, पेड़-पौधे सूख गए, खेतीबाड़ी बन्द हो गई, उनके निवासी अपनी भूमि छोड़ कर अन्य देशों की ओर पलायन करने लगे तब यज्ञ के द्वारा वर्षा करवाने का निर्णय लेकर जब राजा विश्वामित्र भगवान तैयारियों में लग गए तब वृत्रासुर ने उनके द्वारा यज्ञ कार्य के लिए लाये हुए सभी गायों का हरण कर लिया था। इससे पञ्चगव्य आदि के अभाव में खण्डित हो रहे यज्ञ की सुरक्षा के लिए जब कौशिक विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ ऋषि से सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय माँगने गये थे। लेकिन उनके पूर्वज़ भृगु के प्रति अपमान जनक बोल बोलते हुए किसी भी ब्राह्मण को उनके यज्ञ में सम्मिलित नहीं होने देने की धमकी देने से आक्रोशित होकर कौशिक विश्वामित्र भगवान ने वशिष्ठ ऋषि की गाय को जबरन ले जाने लगे थे। इसके कारण वशिष्ठ के सभी पुत्रों और शिष्यों ने अपने आश्रम में अतिथि के रूप में आये हुए भृगुवंशी राजा कौशिक विश्वामित्र भगवान पर आक्रमण करके दिया था। शिकार खेलने के दौरान अपने सैनिकों से भटक कर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में अतिथि के रूप में आये हुए राजा कौशिक विश्वामित्र भगवान के साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण हुए उस संघर्ष का दोषी वशिष्ठ थे, इसके बावजूद उनके शिष्यों ने कथा लिखते समय सारा दोषारोपण राजा विश्वामित्र जी पर थोप दिया था। सिर्फ़ इतना ही नहीं वशिष्ठ ने छल पूर्वक कौशिक विश्वामित्र भगवान के सौ पुत्रों की हत्या भी कर दी थी। जिसका बदला लेने के लिए राज-पाट त्याग कर वे तपस्वी बन गये थे। और तपोबल से प्राप्त दिव्य शक्तियों के आगे वशिष्ठ को झुकने के लिए विवश कर दिये थे। 

महर्षि भृगु ने गङ्गा नदी के तट पर स्थित मुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला, उत्तर प्रदेश) में आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी असुरों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत बनानें का कार्य महर्षि भृगु और उनके बाद शुक्राचार्य जी के द्वारा किया गया था। कश्यप ऋषि की बड़ी पत्नी दिति देवी से जन्में दैत्यों, दनु देवी से जन्में दानवों, रक्षिका देवी से जन्में राक्षसों सहित अन्य असूरों के विकास के कार्य में मदद करने से नाराज़ कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति देवी के पुत्रों के द्वारा विरोध करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था। लेकिन दक्षिणा लोभी वशिष्ठों ने सदैव भोग-विलास में लिप्त रहने वाले आदित्यों के अधर्म को वीरोचित कर्म कह कर खुल कर प्रशंसा किया तो सदैव धर्म रक्षार्थ दान, दया और तप में लीन रहने वाले असूरों के प्रति अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करते हुए दानवेन्द्र बलि जैसे धर्मात्मा को भी अधर्मी कह कर मान मर्दन का ही काम किया है। असूरों की बेटियों को बन्दी बना कर सदैव भोग-विलास में लिप्त रहने वाले इन्द्र, मित्र, वरुण और विष्णु की कथाओं से ही देवों का व्यक्तित्व पता चलता है। राक्षसेन्द्र रावण ने अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए भगवती सीता मइया का सिर्फ़ हरण किया था, लेकिन विष्णु ने तुलसी मइया के साथ जो किया था, क्या वह उचित? इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ जो किया था, क्या वह सही था? श्रीकृष्ण ने निर्दोष बाणासुर के सहस्त्र भाईयों का वध करके उनकी विधवा पत्नियों को द्वारका की नगर वधु बना कर क्या धर्म का काम किये थे?... बिल्कुल नहीं। इसके बावजूद उन अधर्मियों की सैकड़ों-हजारों वर्षों के बाद भी पूजा-पाठ और असली धर्माधिकारियों का विभिन्न पर्व-त्योहार के अवसर पर अपमान करने की प्रथा चला कर असुरों के वंशज़ों के हृदय पर कुठाराघात करना कैसे धर्म है? जिस तरह कश्यप भगवान की पत्नी अदिति देवी से जन्में आदित्य गण कच्छवाहा हैं, उसी तरह कश्यप ऋषि की ही अन्य पत्नियों से जन्में लोग भी कच्छवाहा ही हैं। लेकिन कच्छवाहा सम्मेलनों में सभी कच्छवाहों को आमंत्रित करने के बाद आदित्यों के वंशज़ों के द्वारा दिती और दनु आदि अन्य माताओं से जन्में कच्छवाहों के लिए बोले गये अपमान जनक शब्दों के कारण जब आज तक कच्छवाहा वंश के लोग ही एकजुट नहीं हो सके हैं तो अन्य लोगों के वंशज़ों को एकजुट करने की परिकल्पना कैसे साकार हो सकता है? विश्व बन्धुतव की विचारधारा पर चल कर ही इस स्वप्न को साकार किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए वशिष्ठ जैसे लोगों को सकारात्मक सोच को विकसित करने वाले साहित्य लिखने चाहिए। इतिहास लेखन का कार्य करने वाले लोगों को भी पक्षपात पूर्ण मनगढंत बातें लिखने के बजाए अच्छी हो या बूरी सभी पहलुओं पर विचार करते हुए सच्ची खबरें लिखनी चाहिए। ताकि भावी पीढ़ी के लोगों को ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरणा मिल सके। 

भृगु संहिता
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महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में जानते है। इस नाम से अनेक पुस्तके आज भी साहित्य विक्रेताओं के यहाॅ बिकती हुई दिखाई देती है।

महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था। अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्ष्ेत्र में गंगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था। आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए  उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद  और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से र्पूर्व की गई थी।

महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र  शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।

महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को  कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को  दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, तब कुछ विद्वानों ने इन ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया। 

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शनिवार, 19 सितंबर 2020

दरगाही बाबा सरदार किशन सिंह

पटना में गंगा नदी के किनारे गाय घाट में उदासी मठ बड़ी संगत नामक एक मठ का भग्नावशेष स्थित है। इस मठ के उत्तरी भाग में स्थित है दरगाही बाबा के नाम से मशहूर पहुंचे हुए पीर की समाधि। लेकिन ये दरगाही बाबा कौन हैं, इनके बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है। दरअसल दरगाही बाबा और लङ्गरा बाबा के नाम से विख्यात पुरुष हमारे पूर्वज़ सरदार किशन सिंह बहादुर थे। ये धोला रियासत के जागिरदार होने के साथ आमेर रियासत के उत्तराधिकारी भी थे। इन्हें मूगल सल्तनत के शहंशाह शाहजहाँ के दरबार में इनके पिता राम सिंह के द्वारा अपने वकील के रूप में उस समय नियुक्त किया गया था, जब औरंगजेब के विरुद्ध दारा शूकोह का साथ देने के लिए बाबा राम सिंह जी को अपने पिता मिर्ज़ा राजा जय सिंह के द्वारा दिया गया कार्य छोड़ कर मूगल दरबार से बाहर जाना पड़ा था। 

विदित हो कि मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजा राम सिंह को अपना वकील बना कर उस समय शाहजहाँ के दरबार में नियुक्त कर के गये थे, जब उन्हें सुलेमान शूकोह के साथ शूजा का विद्रोह रोकने के लिए बंगाल की ओर भेजा जा रहा था। लेकिन औरंगजेब के खिलाफ़ दारा शूकोह का साथ देने के लिए राजा राम सिंह जी को भी जाना जरूरी हो गया, तब अपनी जगह पर अपने बेटे कुंवर किशन सिंह बहादुर जी को अपना वकील बना कर आगरा दरबार में नियुक्त करना पड़ा था। ताकि किशन सिंह जी के द्वारा प्राप्त दरबार में घटने वाली घटनाओं की सूचना अपने पिता को भी दे सकें। लेकिन कई युद्धों के अनुभवी इस वंश को सैन्य संचालन के लिए सम्मान जनक दायित्व नहीं सौंप कर बार-बार अपमानित करने तथा गलत युद्ध नितियों के कारण फैसला होने से पहले ही पराजय मान कर युद्ध क्षेत्र से भागे दारा शूकोह की कायरता सहित सूलेमान शूकोह का दुर्व्यवहार भी राम सिंह और मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा को औरंगजेब का साथ देने के लिए बाध्य कर दिया था। इन घटनाओं से अनभिज्ञ सरदार किशन सिंह बहादुर जी को दारा शूकोह की मदद करने की जिम्मेदारी शहंशाह शाहजहाँ के द्वारा सौंप कर पहाड़ी राजाओं को एकजुट करने के लिए भेजा जा रहा था तब उन्हें अपने पिता और बाबा के द्वारा औरंगजेब को साथ देने की कोई खबर नहीं थी। 

उस समय की परिस्थितियों से मजबूर होकर हमारे पूर्वज़ सरदार किशन सिंह बहादुर जी को अपने पिता के द्वारा दिया गया जिम्मेदारी छोड़ कर दारा शूकोह की मदद करने के लिए पहाड़ी राजाओं को एकजुट करना पड़ा था। उस दौरान दारा शूकोह और शाहजहाँ से खार खाये लोगों ने साथ देने का वचन देकर भी उन्हें बार-बार धोखा दिया। इसके बावजूद वे दारा शूकोह की हार को जीत में बदलने के लिए डटे हुए थे। किशन सिंह जी के अनुरोध पर जसवंत सिंह ने अजमेर के पास दारा शूकोह का साथ देने के लिए तैयार हो गए थे लेकिन धरमत के मैदान में औरंगजेब के विरुद्ध हुए जंग के दौरान दारा शूकोह ने जसवंत सिंह पर विश्वास नहीं किया था और मजबूत स्थिति होने के बाद भी युद्ध का फैसला आने के पहले ही दारा शूकोह युद्ध भूमि से भाग गया था। उस बात को याद कर के जसवंत सिंह ने न चाहते हुए भी किशन सिंह जी को दिये हुए वचन को तोड़ दिया था। परिणाम स्वरूप अजमेर में हुए लड़ाई में भी दारा शूकोह बूरी तरह से पराजित हुआ था। 

इसके बावजूद कुंवर किशन सिंह जी! दारा शूकोह का साथ नहीं छोड़े। पारिवारिक सम्बन्धों के कारण सरदार किशन सिंह जी के आग्रह पर ही जिन लोगों ने दारा शूकोह का साथ दिया था वे भी औरंगजेब के मुकाबिल पर्याप्त सैन्य संसाधन न होने के कारण पीछे हट गए थे। आखिरकार दादर में मलिक जीवन के द्वारा दारा शूकोह के साथ किशन सिंह बहादुर को भी गिरफ्तार कर के मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा को सूचित किया गया था। चुकी मलिक जीवन की एक बार मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा ने जान बचायी थी इसलिए उसने भी मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के पौत्र की मदद करके दोस्ती निभाया था। उन्होंने हमारे पूर्वज़ सरदार किशन सिंह को सपरिवार बिहार की ओर भाग जाने में मदद तो किये ही, किसी को राजा जय सिंह पर शक न हो इसके लिए उनके द्वारा दारा शूकोह और उनके बीबी बच्चों को औरंगजेब के दरबार में हाजिर करवा कर सल्तनत के प्रति मिर्जा राजा जय सिंह बाबा की वफादारी को भी साबित करने में मदद किये थे।

कुंवर किशन सिंह जी की फरारी की खबर सुनकर औरंगजेब ने उनकी जागिरदारी वाली धोला रियासत सहित उनके सभी निजी सम्पत्तियों पर कब्जा कर के मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा को ही अपने पौत्र किशन सिंह जी को जिन्दा या उनकी मृत्यु का प्रमाण लेकर ही दरबार में हाजिर होने का आदेश देकर उन्हें न केवल बूरी तरह अपमानित किया था बल्कि किशन सिंह को गिरफ्तार किये बगैर दरबार में आने से भी मना कर के चारों ओर अपने गुप्तचर लगा दिया था। 

इस दौरान मलिक जीवन और बाबा जय सिंह जी के द्वारा बताए गए जगह पर बिहार में आकर किशन सिंह जी ने पड़ाव डाला। पटना के लोहानीपुर में रहने वाले सूफ़ी मत के अनुयायी दीवान शाह अर्जन के घर में अपनी पहचान छुपा कर नौकरी किए और उनकी मदद से ही पुनपुन नदी के किनारे स्थित बियाबान जंगल में जैबर नामक गाँव बसा कर जीवन पर्यंत औरंगजेब के खिलाफ़ संघर्ष करते रहे थे। 

इस दौरान सरदार किशन सिंह को मराठा सरदार शिवाजी और जम्मू के राजा मेदिनी सिंह के बेटे दूनी सिंह सहित सिख सरदार गोविन्द सिंह जैसे वीरों का भी साथ मिलता रहा। मगर आगरा के पास विक्रम पुर में मूगल सेना के साथ हुए मुठभेड़ में वीर गति पाने के बाद किशन सिंह बहादुर जी के बीबी-बच्चे औरंगजेब के गुप्तचरों से अपनी पहचान छुपाने के लिए कठिन परिस्थितियों को झेलते हुए भी अपने अस्तित्व को बचाये रखें। हालांकि बाद में आमेर रियासत के कुम्भी बैसों के इस वंश ने पटना में जैबर के आस-पास के भी काफ़ी जमीन कब्जा कर के जैबर, फत्तेपुर, दौलतपुर, सैदनपुर, मसाढ़ी और एकउना नामक छः गाँव बसा लिये। जिनमें सरदार किशन सिंह और दूनी सिंह के वंशज़ अपने सेवकों दीवान, ब्रह्म भट्ट, हजाम, कुम्हार, लोहार, और कहार के वंशज़ों के साथ आज भी रह रहे हैं।

दरगाही बाबा और लङ्गरा बाबा के नाम से प्रसिद्ध सरदार किशन सिंह के वंशज़ प्रसेनजित सिंह फतुहां प्रखण्ड में स्थित बड़गायां दौलतपुर नामक गाँव में रहते हुए कुम्भी बैस वंशीय कच्छवाहा राजपूतों का इतिहास जानने के लिए वर्षों से शोध कर रहे हैं। कुम्भी, बैस और कच्छवाहा जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति कैसे हुई इसे जानने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लोग आमेर रियासत के इस वंश का गोत्र मानव्य बताते हैं, जबकि इनका गोत्र कौशिक है। इनकी कुल देवी का नाम कुछ लोग जमवाय माता बताते हैं, जबकि इनकी कुल देवी बन्दी मइया है। सम्भवतः इसी के कारण औरंगजेब अपने बचपन में मिर्जा राजा जय सिंह बाबा को "बान बा" कह कर पुकारता था। 


दरगाही बाबा सरदार किशन सिंह बहादुर जी के द्वारा जैबर में स्थापित कौशिक गोत्रीय कुम्भी बारी समाज की कुल देवी बन्दी मइया की पिण्डी


दादर से पटना आते समय रास्ते में ही अपने परिवार से भटक कर नांदेड़ में स्थित भगवान दास की वीरान हवेली में शरण लेकर अपनी प्राण रक्षा करने वाले दरगाही बाबा किशन सिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र माधो दास! बन्दा वैरागी के नाम से क्यों मशहूर हुए? औरंगजेब! मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा को बान बा कह कर क्यों पुकारता था? मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा, उनके बेटे राम सिंह और राम सिंह के भी ज्येष्ठ पुत्र सरदार किशन सिंह बहादुर की भी मृत्यु कैसे हुई, इन लोगों की समाधियाँ कहाँ और किस स्थिति में हैं, ऐसे कई सवालों के जवाब की तलाश करने के लिए मैंने इस ब्लॉगर को अपना माध्यम बनाया है। 

मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के जिस वंश को मूगल काल में अपना घर-बार, धन-धान्य सब कुछ छोड़कर उदासी साधुओं के वेश-भूषा में पटना में रहना पड़ा था, क्या उनके वंशजों को आमेर रियासत या धोला रियासत में स्थित धोलपुर, भरतपुर, आगरा, मथुरा और दिल्ली में स्थित उनके छिन चुके महलों या जमीनों पर दूबारा अधिकार नहीं मिल सकेगा? दरगाही बाबा किशन सिंह के छोटे भाई बाबा विशन सिंह जी के वंश में उत्पन्न आखिरी चिराग दीया कुमारी से क्या मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के वंश वृक्ष आगे बढ़ सकेगा?  क्या सरदार किशन सिंह बहादुर के वंशज़ों की अपेक्षा दीया कुमारी के भाई के रूप में गोद लिये गये पुत्र प्रदुम्न से ही मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के वंश की नींव ज्यादा मजबूत होगी? यदि नहीं तो क्या अब किशन सिंह जी के वंशज़ों को भी अपनी सम्पत्ति पर दूबारा काबिज होने के लिए कानूनी कारवाई की शुरुआत नहीं करनी चाहिए? ऐसे कई सवालों के जवाब की तलाश करने के लिए लिखा गया है यह लेख। 


मित्रों के साथ प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास 

इस वंश के बारे में आगे भी जानकारी देता रहुंगा। मगर कृप्या अपना कमेन्ट देकर भी हमारा मार्गदर्शन करते रहें। 

सोमवार, 15 अगस्त 2016

सुशील कुमार मोदी बनाम बिहार भाजपा


बिहार गौरव सुशील कुमार मोदी

सन्यास लेने के बाद मुझे जदयू ने भी सम्मानित करते हुए आमंत्रित किया था,
मगर भाजपा को भुला नहीं पाने के कारण दूबारा राजनीति में नहीं लौटा

अब तो भाजपा भी बनता जा रहा है अपराधियों का अड्डा! मगर सुशील कुमार मोदी आज भी हैं हीरा
✍️प्रसेनजित सिंह

जून 2006 में बिहार भाजपा में युवा मोर्चा के प्रदेश महामंत्री मंगल पाण्डेय का भगिना रविशंकर पाण्डेय के द्वारा जब अरूण कुमार सिंह नामक एक इलेक्ट्रिशियन की नाबालिग बेटी के साथ विवाह करनेेे की मंशा जाहिर करने पर उस बच्ची ने विरोध जताया था तब आरोपित युवक ने रिवाल्वर के बल पर उसे जबरदस्ती उठाने की धमकी देने लगा था। इसके कारण इलेक्ट्रिशियन की पत्नी उत्तमी देवी ने मदद के लिए शोर मचातेे हुए उस युवक को लोहे के रड से मार कर जख्मी कर दिया था। शोरगुल सुनकर आस-पास के लोगों को आते देख कर उस समय तो वह अपराधी भाग गया था। लेकिन जाते-जाते उसे उठा लेने की धमकी देता गया था। उस घटना की सूचना मिलते ही अरूण मिस्त्री ने मुझे इस घटना के बारे में बताते हुए आरोपित युवक रविशंकर पाण्डेय के अभिभावकों से उस घटना की शिकायत करने के लिए उसके घर पर चलने का आग्रह किया था। लेकिन अपने घर में शिकायत करने के लिए पहुंचे हुए लोगों को देखते ही रविशंकर पाण्डेय ने न सिर्फ़ हम लोगों को धक्के देते हुए भगा दिया था, बल्कि थोड़ी देर बाद ही दो-तीन लोगों के साथ पिस्टल लेकर इलेक्ट्रिशियन अरूण कुमार सिंह के घर में जाकर गाली-गलौज करने लगा था। बात सिर्फ़ इतनी ही होती तब भी इस मामले को भुलाया जा सकता था लेकिन उसने इलेक्ट्रिशियन की बेटी को जबरन उठा लेने की धमकी देते हुए हाथापाई करने लगा था। घटना स्थल पर मौजूद लोगों ने बीच-बचाव की कोशिश करने पर भी जब यह महसूस किया कि हाथों में पिस्टल लिए हुए ये लोग कुछ भी कर सकते हैं, तब मैंने पुलिस को खबर कर दिया था। मगर जैसा कि आमतौर पर होता है खबर करने के बाद भी जब पुलिस नहीं पहुंची तो आक्रोशित भीड़ ने पिस्टलधारी युवकों को घेर कर धुनाई कर दिया। संयोगववश उसी समय पुलिस के आ जानेेे से लोगों से पिट रहा मुख्य अभियुक्त तो गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन अन्य दो अभियुक्तों के बारे में पूछने पर यह बताया गया कि आप लोगों के पहुंचते ही भीड़ का फायदा उठा कर वे लोग फरार हो गये। लोगों से पिट रहे युवक के साथ कितने लोग थे मैं नहीं जानता हूँ, न ही उसके हाथ में मैंने कोई हथियार देखा था। इसके बावजूद पिस्टल लेकर घर में घुसने का आरोप लगा कर ५०-६० लोगों की भीड़ के द्वारा उस युवक को बूरी तरह मारते हुए देखते ही किसी अनहोनी की आशंका को रोकने के लिए मैंने स्थानीय पुलिस स्टेशन से लेकर वरीय आरक्षी अधीक्षक तक को फोन कर के उक्त घटनास्थल पर अविलम्ब पहुंचने का आग्रह किया था। इस मामले में आरोपित युवक ने अरुण कुमार सिंह नामक इलेक्ट्रिशियन की बेटी के साथ वाकई में जबर्दस्ती किया था की किसी पुरानी दुश्मनी का बदला लेने के लिए मनगढ़ंत कहानी रचा था मैं इसके बारे में भी नहीं जानता। लेकिन अपना घरेलू मिस्त्री होने के कारण इलेक्ट्रिशियन अरुण कुमार सिंह के द्वारा मदद माँगने पर मैं भी उनके साथ कथित अभियुक्त रविशंकर पाण्डेय के घर पर बीच-बचाव करने के लिए जरूर गया था। वहाँ जाते ही उसके अभिभावकों को ढूँढने पर रविशंकर पाण्डेय के द्वारा मुझे भी अपने घर से धक्के देतेहुए जिस तरह से भगाया गया था उससे मैं समझ गया था कि इस मामले में कुछ न कुछ सच्चाई जरूर है। जिसे आरोपित युवक अपने परिजनों से छुपाना चाह रहा है। 



आरोपित युवक की गिरफ्तारी के बाद केस उठाने के लि‍ए स्थानीय अपराधियों के द्वारा पीड़िता बच्ची के पिता पर दबाव बनाया जाने लगा था। इससे डर कर वह मेरे घर में छुप कर रह रहा था। पीड़ित बच्ची के पिता की मदद न करने के लिए जब मुझे भी स्थानीय अपराधियों के द्वारा धमकी दिया जाने लगा तब मैंने आरक्षी उपाधीक्षक से लेकर तत्कालीन आरक्षी अधीक्षक कुन्दन कृष्णन तक से पीड़ित युवती के परिवार को सुरक्षा दिलाने के साथ धमकी देने वाले अपराधियों की भी शिकायत दर्ज कराया था। उसके बाद अपराधियों की धमकी मिलना तो बन्द हो गया था लेकिन शरणागत की हर हाल में मदद करने की मेरी हठधर्मिता से बौखलाये मोतिहारी के एडीएम वशिष्ठ नारायण पाण्डेय जो आरोपित रविशंकर पाण्डेय का फूफा था, कुछ पुलिसकर्मियों के साथ सीविल ड्रेस में मेरे घर में आकर मुझे अरूण के मामले में हस्तक्षेप करने पर मनमाना केस लाद कर जिन्दगी बर्बाद करने की धमकी देने लगा था। 


जब एडीएम ने मुझसे कहा कि तुम्हारी औकात क्या है,
एक लाख रुपये तो हम रोज़ लेते हैं 

घर में लगे सीसीटीवी कैमरे में उसकी धमकियों की बातें औनलाइन रिकॉर्ड होने की सूचना देते हुए मैंने जैसे ही उसे अपने खानदान का परिचय दिया, वह ठण्डा होकर सुलह करवाने की बातें करते हुए चुपचाप लौट गया था। मुझे रविशंकर पाण्डेय से कोई दुश्मनी नहीं थी, मैं तो उसे जानता तक नहीं था। सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक नाबालिग लड़की के डरे-सहमे परिवार को शरण देकर मैंने कोई गुनाह नहीं किया था। इसके बावजूद खुद को जातियों में भी सबसे ऊँची जाति का बताते हुए एक एडीएम के द्वारा तीन थानों के पुलिस अधिकारियों के साथ मेरे घर में आकर मुझे धमकी देना अपमान जनक ही नहीं बल्कि अक्षम्य भी था। मैं भी कौशिक विश्वामित्र भगवान का वंशज हूँ। मेरे अन्दर भी मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा और फर्ज़न्द बहादुर महाराजा मान का रक्त बह रहा है। ऐसे में मेरा उस अभिमानी ब्राह्मण की धमकियों से डर जाना हमारे पुरखों का अपमान था। अतः मैने भी ठान लिया था कि पीड़ितों के परिजनों को आँच तक आने नहीं दूँगा। मैं इसके लिए एडीएम वशिष्ठ नारायण पाण्डेय के उस धमकी के कारण दृढ़ संकल्पित हो गया था जो आज भी मेरे कानों में गूँजती है। उसने कहा था कि "क्या औकात है तुम्हारी? एक लाख रुपये तो हम रोज़ रिश्वत लेते हैं। कुछ पैसे ले लो और केस खत्म कराओ।" 



जब अपराधियों का साथ देने से इंकार करने पर मुझे प्रान्तीय पदाधिकारियों के आदेश की अवमानना के आरोप में भाजपा से निष्कासित करने की धमकी मिली

अरूण कुमार सिंह की मदद करने से ज्यादा मेरा उद्देश्य एक अहंकारी और भ्रष्ट व्यक्ति को उसकी औकात दिखाना था। उसे यह बताना था कि सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले की देर से ही सही मगर जीत जरूर होती है। वह केस मेरे लिए एक धर्म युद्ध बन गया था। ऐसे भी मैंने पीड़ित परिवार के द्वारा मदद माँगने पर ही उस मामले में हस्तक्षेप किया था। पीड़िता के पिता जदयू के नेता थे तो मैं भाजपा का नेता। भाजपा तकनीकी मंच, बिहार प्रदेश में कार्यकारिणी समिति के सदस्य सह पटना महानगर के जिला महामन्त्री होने के नाते भी मैं गठबन्धन के धर्म का निर्वहन कर रहा था। इस मामले की शिकायत अपने नेता सुशील कुमार मोदी और गिरीराज जी से करने पर जब वशिष्ठ नारायण पाण्डेय को निलम्बित कर दिया गया, तब जाकर मंगल पाण्डेय को पता चला कि जिस मामले में वह मेरा साथ दे रहा था, उस मामले का मुख्य अभियुक्त उसका भगिना ही है। इसकी सूचना मिलते ही कि मेरे हस्तक्षेप के कारण ही उसके भगिना की गिरफ़्तारी और उसके रिश्तेदार का निलम्बन हुआ है, भाजपा के प्रदेश महामंत्री गिरिराज सिंह से फोन करवा कर मुझे उस मामले से हट जाने की धमकी दिलवाया था। उस फोन के पहले मुझे भी इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि अभियुक्त रविशंकर पाण्डेय से मंगल पाण्डेय की कोई रिश्तेदारी है। यही बात यदि मंगल पाण्डेय ने बताया होता तो उस मामले को पारिवारिक विवाद की तरह सुलझाने का प्रयास अवश्य करता। लेकिन केस खत्म नहीं करवाने पर अंजाम भुगतने की धमकी और औकात को चुनौती देने की बात करने के कारण मैंने भी पीछे नहीं हटने की कसम खा ली थी। उसके बाद उस मामले को अपने केस की तरह देखने लगा था। इससे नाराज़ होकर भाजपा के मुख्य सचेतक सह कुम्हरार विधान सभा क्षेत्र के विधायक अरुण कुमार सिन्हा और बिहार भाजपा के तत्कालीन महामंत्री गिरीराज सिंह ने भी प्रान्तीय नेताओं के आदेश की अवमानना का आरोप लगाकर मुझे भाजपा से निष्कासित करने की धमकी तक दे डाला था। 

गिरिराज सिंह! जिन्हें मैं अपने सगे भाई से कम नहीं समझता था, उन्होंने मंगल पाण्डेय को खुश करने के लिए मुझे धमकी देते हुए कहा था कि "ज्यादा तिस्मार खां मत बनो। अभी इतने बड़े नेता नहीं बने हो कि जिसे चाहो उसे नचा दो। मंगल के भगिना को क्यों फँसा दिये हो?" बस इतना सुनना था कि मैं भी उन पर बिफर पड़ा था। मैैंने भी गरजते हुुए बोला था कि "आज मुुझे पता चला कि नेता का मतलब होता है जिसे चाहो उसे नचाने वाला? मैं नहीं जानता था कि आप भी ऐसे ही लोगों में शामिल हैं। वर्ना मैं आपके जैसे घटिया आदमी को कभी भइया नहीं कहता। मंत्रालय में आपको जगह नहीं मिला था तब यही सुनने के लिए क्या मैंने प्रदेश कार्यालय में हंगामा करवाया था? यदि मुझे आपके बारे में पता होता तो मैं इस मामले में पड़ता ही नहीं। लेकिन अब चाहे जो हो जाए मैं पीछे नहीं हटुंगा। आप बिहार में मनमानी कीजिएगा तो मैं दिल्ली में आपके खिलाफ़ आवाज़ उठाऊंगा। एक अपराधी की मदद करने के लिए किसी बेकसूर समाजसेवी को भाजपा में भी बली का बकरा बनाया जा सकता है, ऐसा मैंने नहीं सोचा था। लेकिन आपके जैसे लोग भी साधु यादव जैसा ही करेंगे, इसे देख कर मुझे खुद को भाजपायी कहने में शर्म आ रही है। जिस तरह आप मंगल के कहने पर मुझे धमकी दे रहे हैं, उसी तरह से मैं भी अपने पड़ोसी से मदद माँगने पर ही उसकी मदद कर रहा हूँ। लेकिन अब आपको जो उखाड़ना है उखाड़ लीजिए, मैं भी जीते-जी पीछे नहीं हटुंगा।"

रविशंकर पाण्डेय के विरूद्ध पटना जिलान्तर्गत अगमकुआँ थाना काण्ड संख्या 298/2006 के तहत दर्ज किये गये उस मामले को रफा-दफ़ा करवाने के लिए सत्ताधारी दल के प्रांतीय नेताओं ने फ़ायदा उठाकर पुलिस-अपराधी गठबन्धन का जमकर इस्तेमाल किया था। गिरिराज सिंह से धमकी मिलने के बाद स्थानीय चोर-पॉकेटमार जैसे लोग मुझे राह चलते केस खत्म करवाने की धमकी देने लगे तो घर में आकर और फोन कर-कर के भी मुझे धमकियां देते थे। मगर जन मुक्ति संघर्ष समिति नामक अपने संगठन के बेखौफ साथियों के बदौलत मैंने अपने सामने किसी की दाल नहीं गलने दिया। राजद समर्थित जिस बूथ लूटेरे ने मुझ पर बहादुरपुर हाउसिंग कॉलोनी में बमबारी करवाया था उसे अपना गिरोह छोड़ने के लिए मजबूर कर के एक रिटायर्ड कर्नल का ड्राइवर बनवा दिया तो जिसके इशारे पर मेरी हत्या करवाने की कोशिश की गई थी उसे साधु यादव के द्वारा ही आर्थिक नुकसान दिला कर राजद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। राजद को वोट दिलाने वाले ठेकेदारों ने मुझ पर इसलिए हमला करवाया था क्योंकि मेरे रहते वे लोग मतदाताओं को वोट देने से नहीं रोक पाते थे। इसके बावजूद मुझे निशाना बना कर किये गये बमबारी में कई लोगों के जख्मी होने के बाद भी मेरे बाल-बाल बचने की सूचना पर पार्टी के स्तर पर कोई कारवाई करने के बजाए नामर्द विधायक अरुण कुमार सिन्हा ने मुझे अपने साथ लेकर दूसरे क्षेत्र में चला गया और मुझे कुछ दिनों के लिए गाँव चले जाने की सलाह देकर हमलावरों के विरुद्ध FIR तक दर्ज करवाने में मदद नहीं किया था। चुनाव परिणाम के बाद सत्ता में आते ही घटित इस घटना के कारण यही अरुण कुमार सिन्हा जिसके कारण मुझ पर एक ही दिन में तीन-चार बार जानलेवा हमला किया गया था, राजद नेताओं के द्वारा मामले को दबाने के लिए स्थानीय अगमकुआँ थाना के प्रभारी के द्वारा ही मीडिया कर्मियों को खुलेआम रुपये बांटे गए थे, उस विधायक ने मुझसे इस्तीफ़ा देने की माँग किया था। जबकि जिस व्यक्ति ने मुझ पर बमबारी करवाया था उसे भाजपा किसान मोर्चा की पटना महानगर का जिलाध्यक्ष बना कर सम्मानित किया था। ऐसे वफादार हैं बिहार भाजपा में हावी प्रांतीय नेता। ऐसे लोगों के कारण ही आम लोगों का भी भाजपा के ऊपर से विश्वास उठता जा रहा है। इसके अधिकांश जनप्रतिनिधियों को भी आम आदमी पसन्द नहीं करते हैं, मगर सिर्फ़ आरएसएस समर्थित उम्मीदवार होने के कारण न चाहते हुए भी मजबूर होकर वोट देते हैं। कुम्हरार में स्थित दाउद बिगहा के बूथ लूटेरों के इस मामले को तो दबा ही दिया गया था, लेकिन रिवाल्वर के बल पर जबरन विवाह करने के लिए एक नाबालिग लड़की को धमकी देने वाले भाजपा समर्थित अपराधी का मामला पटना से प्रकाशित होने वाले लगभग सभी प्रमुख अखबारों में प्रकाशित हुआ था।

अगमकुआँ थाना काण्ड संख्या 268/2006 के इस मामले की सूचना पटना से प्रकाशित होने वाले लगभग सभी प्रमुख अखबारों में दिनांक 02.08.2006 और 03.08.2006 को भी छपी थी। उस घटना के कुछ ही दिनों बाद बिहार की सत्ता से सटे पूंजीपति सवर्णों की टोली ने दिनांक 15.08.2006 को अपनी आजादी का जमकर जश्न मनाया। जबकी शरणागत की रक्षा करने के अपने क्षात्र धर्म को निभाने की कोशिश में शासन और प्रशासन द्वारा संरक्षित अपराधियों से बचने के लिए मुझे भूमिगत होना पड़ा था, जिसके कारण चारों ओर से दुश्मनों से बचने के लिए मुझ जैसे कर्तव्यनिष्व्ठ  क्रान्तिकारी के परिवार को 15 अगस्त को भी भूखे रहना पड़ा था। उस दिन मुझे विश्वास हो गया था कि इस देश में ग़रीब, ईमानदार और देशभक्त लोग नहीं बल्कि सिर्फ़ अमीर, बेईमान और धूर्त लोग ही आज़ाद हुए हैं। 

23.06.2010 दैनिक जागरण, पटना
समाजसेवा की यह सनक कुछ समय के लिए तब शान्त हो गया था जब अरूण कुमार सिंह नामक उस इलेक्ट्रिशियन ने मेरा साथ देनेे से इंकार कर दिया था जिसके कारण मैने अपने परििजनों से भी अधिक प्यारा भाजपा परिवार से नाता तोड़ कर मदद कििया था। जिस शरणागत की मदद करने की जिद में मैंने न सिर्फ़ भाजपायी मित्रों से सभी पुराने सम्बन्धों को त्याग कर राजनीति से सन्यास ले लिया था। अरुण कुमार सिंह नामक धूूर्त इलेक्ट्रिशियन ने मेरा उस समय साथ देने इंकार कर दिया था जब मुझे अचानक एक जमानतदार की जरूरत पड़ गयी थी। उस धूर्त ने मेरी मदद करने से इंकार करते हुए साफ़ कह दिया था कि "आप सक्षम थे तो मेरी मदद किये, लेकिन हम सक्षम नहीं हैं।" हालांकि बाद में मुझे भाजपा के उन पुराने साथियों को ही याद करना पड़ा था जिनका पुतला दहन कर के मैने राजनीति से सन्यास लिया था। वे मददगार थे बिहार के उपमुख्यमंत्री माननीय सुशील कुमार मोदी जी। उन्होंने सिर्फ़ एक फोन पर ही मेरी मदद की थी, वह भी उस स्थिति में जब मैंने मोदी जी का ही पुतला दहन कर के भाजपा से नाता तोड़ लिया था। लेकिन जिस दिन एक फोन पर ही मोदी जी ने मेरी मदद की थी, उस दिन मुझे यकीन हो गया था कि मैंने भाजपा कार्यालय में जाना भले ही छोड़ दिया था लेकिन मेरी आत्मा भाजपा के साथ जुड़ी हुई थी। न तो मैंने भाजपा को छोड़ा था और न ही मोदी जी ने मेरा परित्याग किया था। यह तो मोदी जी की महानता थी कि उन्होंने नकारात्मक बातों को भुला कर के संकट में फँसे हुए एक भाई की तरह मेरी मदद की थी। इनके जैसे व्यवहार वाले नेता बिहार में दूसरा कोई नहीं है। वाकई में बिहार के गौरव हैं सुशील कुमार मोदी जी। जिस दिन मेरे एक कॉल मात्र से इन्होंने मुझे नालन्दा के एसपी के चंगुल से मुक्त करवाया था, उसी दिन मुझे विश्वास हो गया था कि असली परिवार वही है जो बूरे समय में साथ देता है। अतः गैरों के लिए अपने परिवार से भूल कर भी सम्बन्ध खराब नहीं करना चाहिए। 


एक इलेक्ट्रिशियन की नाबालिग लड़की को अपहृत करने की धमकी देने वाले व्यक्ति का विरोध करने के कारण मेरे क्षेत्रिय विधायक अरुण कुमार सिन्हा, भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश महामन्त्री मंगल पाण्डेय और बिहार भाजपा के प्रदेश महामन्त्री गिरिराज सिंह से मेरा सम्बन्ध इतना खराब हो गया था कि मेरे लिए किसी भी स्थिति में इन लोगों के साथ बैठना मुझे अपमानजनक लगने लगा था। इसके कारण न चाहते हुए भी मैं खुदको भाजपा से दूर करता गया और मन को अन्य कामों में रमाये रखने के लिए सहारनपुर से प्रकाशित होने वाले भाष्कर दर्शन नामक एक साप्ताहिक अखबार में पटना ग्रामीण के अपराध संवाददाता के रूप में जुड़ कर पत्रकारिता का अपना पुराना काम पुनः शुरू कर दिया था। 2004 में मेरे द्वारा ही गठित किया गया संगठन जन मुक्ति संघर्ष समिति तो मेरे साथ था ही। यदा-कदा उसके भी कार्यक्रम करवाते हुए खाली समय में शोषित और पीड़ित लोगों की मदद करता था। 

जन विरोधी योजनाओं के कारण बढ़ते पुलिसिया गुण्डागर्दी के खिलाफ़
आवाज़ उठातेे जन मुक्ति संघर्ष समिति के कार्यकर्ता


पहले तो बहादुरपुर हाउसिंग कॉलोनी से गरीब-गुरबों को बेघर करने की कोशिश फिर फुटपाथ पर भी दुकान लगाने से रोके जाने के खिलाफ़ विचार गोष्ठी में शामिल समिति के अध्यक्ष प्रसेनजित सिंह 



अवामी पार्टी, बिहार के प्रधान महासचिव के रूप में कार्यकर्ता
सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए समाजसेवी प्रसेनजित सिंह मुन्ना



इसी बीच एक दिन विश्वमोहन चौधरी नामक अपने मित्र की जिद पर मुझे पटना के कालीदास रंगालय नामक कम्युनिटी हॉल में आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होना पड़ा। जहां आवामी पार्टी नामक एक राजनीतिक संगठन के कार्यक्रम में आयोजित एक सभा को सम्बोधित करते हुए मैं "सुशासन की आड़ में कुशासन का खेल" विषयक अपना व्याख्यान दे रहा था, तब संयोगवश सुप्रीम कोर्ट के वरीय अधिवक्ता और अवामी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी उस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। मेरे सम्भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने उसी समय मुझे अपनी पार्टी में बिहार प्रदेश के प्रधान महासचिव घोषित कर के पटना से चुनाव लड़ने का निमंत्रण दे दिए। उसके बाद अवामी पार्टी में बिहार के प्रधान महासचिव की हैसियत से पटना के कालीदास रंगालय में कार्यकर्ता सम्मेलन का आयोजन कर के गरीबी और बेरोजगारी के कारण अपनी ही जाति के सम्पन्न लोगों के द्वारा शोषित हो रहे सवर्णों को गरीबी आधारित आरक्षण दिलवाने के लिए मैंने सवर्ण फैंस क्लब नामक एक सामाजिक मंच की आधारशीला रखा था। इसके संरक्षक अवामी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष व सुप्रीम कोर्ट के वरीय अधिवक्ता सैय्यद मुशीर अहमद थे। 

दायीं ओर से क्रमशः अवामी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष सैय्यद मुशीर अहमद, बिहार के
प्रदेश प्रभारी बादल खान तथा प्रधान महासचिव प्रसेनजित सिंह मुन्ना