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रविवार, 6 जून 2021

सनातन धर्म की रक्षा के लिए अम्बेर रियासत का योगदान

24 नवंबर 1675 की तारीख गवाह बनी थी कुम्भी बैस वंशीय एक सिख सरदार के सरदार बने रहने की। दोपहर का समय और जगह चाँदनी चौक दिल्ली में लाल किले के सामने जब मुगलिया सल्तनत के सबसे नीच शासक की क्रूरता देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था, तब भी उस सनकी शासक के डर से लोग चुपचाप फैसले का इंतजार कर रहे थे। वह शासक मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा की छल पूर्वक हत्या करवाने वाला वह कायर था, जिसने सल्तनत के लिए अपने भाईयों की हत्या कर के अपने पिता और पुत्र तक को कारागार में डाल दिया था। वह नराधम इस्लाम के विस्तार के नाम पर अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए बाधक बन रहे सिखों के गुरू श्री तेग बहादुर सिंह जी के खिलाफ़ जो फैसला सुनाने वाला था, उसे जानने के लिए लोगों का जमघट काज़ी के उस मंच की ओर लगा हुआ था, जहाँ तेग बहादुर जी का फैसला होने वाला था। सबकी साँसे उस परिणाम को जानने के लिए अटकी हुई थी जिसके मुताबिक अगर गुरु तेग बहादुर जी इस्लाम कबूल कर लेते तब बिना किसी खून-खराबे के सभी सिखों को मुस्लिम बनना पड़ता। औरंगजेब के लिए भी उस दिन का फैसला इज्ज़त का सवाल था। क्या मुसलमान और क्या सिख? तेग बहादुर सिंह जी की पत्नी गुजरी मइया और उनके पोतों को काज़ी के हवाले करने वाले धूर्त ब्राह्मणों के साथ अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी राजपूतों पर छोड़ कर अपनी रोजी-रोटी में लिप्त निःशेष हिन्दुओं की भी सांसे उस दिन का फैसला सुनने के लिए अटकी हुई थी। अपने भाईयों के खून से हाथ धोने वाले बादशाह को देख कर भी सिखों के गुरु तेग बहादुर जी अपने आसन से नहीं उठे। सिखों के कारण मुसलमानों को अपना धर्म खतरे में दिख रहा था। छल, छद्म और क्रूरता के बल पर अपने धर्म के अनुयायियों का विस्तार करने वाले इस्लामिक हुकूमत का अस्तित्व खतरे में था तो दूसरी तरफ एक धर्म का सब कुछ दाव पर लगा हुआ था। ना कहते ही तेग बहादुर जी की गर्दन धर से अलग कर देने के लिए तैयार जल्लाद, काज़ी और औरंगजेब सहित हिन्दुस्तान को हिन्दुत्व विहीन कर देने के लिए तैयार नर पिशाचों से घिरे होने के बाद भी तेग बहादुर जी बेखौफ़ होकर आने वाले फैसले का इंतजार कर रहे थे। तय समय पर अदालती कारवाई शुरू हुआ और काज़ी ने सवाल किया-"तुम्हें हमारी शर्तें मंजूर हैं या नहीं? यदि तुम इस्लाम कबूल कर लोगे तब हमारी तरह ही तुम भी अपनी जमात के अगुआ बने रहोगे। तुम्हारी शान में कोई कमी नहीं आएगी। लेकिन अपनी जिद पर अड़े रहोगे तब काफ़िरों की तरह ही मारे जाओगे। तुम्हारे कारण तुम्हारा साथ देने वाले लोगों का भी यही अंजाम होगा। लेकिन यदि तुम इस्लाम को कबूल कर लोगे तब तुम्हारे साथ आने वाले लोग भी अपनी बर्बादी से बच जायेंगे। इसके लिए तुम्हें सल्तनत में एक ऊँचे ओहदे के साथ इनाम-इकराम भी दिलवा दूँगा। इसलिए सोच-समझकर जवाब दो। तुम्हें शाही जिन्दगी चाहिए या मौत? अपना जवाब हाँ या नहीं में देना। तुम्हें इस्लाम कबूल है या नहीं?" उस दिन की अदालती कारवाई का निर्णय तेग बहादुर जी के हाँ या ना पर निर्भर था। काज़ी सहित उस जगह पर स्थित कई शाही दरबारियों ने भी उन्हें हाँ कह देने के लिए मनाना चाहा था, मगर अम्बेर (आमेर) के राजा राम सिंह जिन्हें औरंगजेब के कारण ही अपने ज्येष्ठ पुत्र सरदार किशन सिंह बहादुर जी को बागी घोषित कर के सारे सम्बन्ध त्यागने के बाद भी अपनी रियासत से हाथ धोना पड़ा था, उनकी पकड़ तलवार की मूठ पर कसती जा रही थी। लेकिन परिस्थिति के कारण मजबूर होकर उन्हें भी काज़ी के फैसले का इंतजार करना पड़ा था। आखिर तेगबहादुर जी के इस्लाम स्वीकार करने से इंकार करते ही काज़ी ने उनका सिर कलम करने का फैसला लेते हुए उस पर तुरन्त अमल करने का आदेश दे दिया था। लेकिन तेग बहादुर सिंह जी परम प्रकाश के ध्यान में लीन होकर अपने धर्म पर अडिग रहे। आदेश सुनते ही आये दिन लोगों की कत्ल करने वाला जल्लाद भी अपनी मौत से बेपरवाह तेगबहादुर सिंह को बेखौफ़ ईश्वर के ध्यान में लीन देख कर तलवार उठाते समय काँप गया था। तेग बहादुर जी का सिर कटते ही अम्बेर के राजा राम सिंह! मुगलिया सल्तनत के साथ किये गये अपने पूर्वज़ों की सन्धि को तोड़ने का निर्णय ले चुके थे। ऐसे भी इसके लिए उन्हें औरंगजेब ने ही मजबूर किया था। पहले तो उसने सल्तनत के बादशाह शाहजहाँ के आदेश से दारा शूकोह का साथ देने के कारण उनके निर्दोष बेटे किशन सिंह जी को बागी घोषित कर उनकी जागीर और मालो-मकान सहित अम्बेर रियासत पर भी कब्जा कर के उनके पूर्वज़ों का महल खाली करने के लिए मजबूर कर दिया था। फिर उनके पिता मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा को ही अपने पौत्र किशन सिंह जी और दारा शूकोह को गिरफ्तार करने का आदेश देकर चारों दिशाओं में दौड़ा-दौड़ा कर परेशान किया था। फिर औरंगजेब ने ही दक्षिण अभियान में राजा जय सिंह जी के साथ भेजे हुए अपने आदमी के द्वारा उनके रात्रि भोजन में जहर डलवा कर छल पूर्वक हत्या करवाया था। उस घटना के पहले शाहजहाँ ने जब अपने पिता के खिलाफ़ बगावत किया था तब बादशाह जहाँगीर के आदेश पर मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा ने खुर्रम (शाहजहाँ) को गिरफ्तार कर के दरबार में पेश किया था। राजा जय सिंह बाबा के साथ हुए जंग में पराजित होकर गिरफ्तार किए जाने से हुई शर्मिन्दगी का बदला लेने के लिए शहजादा खुर्रम ने सल्तनत की बादशाहत हाथ में आते ही मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के हाथों हुई हार का बदला लेने के लिए साजिशें रचने लगा था। मिर्ज़ा राजा जय सिंह जी के विरोध के बावजूद दुल्हे राय के नाम से मशहूर उनके पूर्वज़ राजा तेजकरण की याद में उनके पूर्वज़ों के द्वारा बनवाये गये तेजू महल पर जबरन कब्जा कर के शाहजहाँ नामक नामुराद ने उसमें अपनी बेगम का कब्रगाह बना दिया था।
सल्तनत के लिए हुए शहजादों की जंग में कई जंगों के अनुभवी और विजेता रह चुके उनके पिता राजा जय सिंह जी का ओहदा कम कर के उम्र में काफ़ी छोटे और अनुभवहीन जसवंत सिंह, सुलेमान शूकोह और दारा शूकोह जैसे लोगों के अधीन कर दिया था। सत्ता के लिए शाहजहाँ के शहजादों की जंग में अनुभवहीन और अहंकारी लोगों के अधीन रह कर शुजा, मुराद और औरंगजेब के विरुद्ध चलाये गये युद्ध अभियान में गलत नीतियों के कारण हुए हार का दोषारोपण भी उनके पिता मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा पर ही थोप कर उनको लगातार अपमानित करने का काम भी मुगलिया सल्तनत के लोगों ने ही किया था। पहले शाहजहाँ, दारा शूकोह और सुलेमान शुकोह और फिर औरंगजेब के द्वारा भी अपने पिता के अपमान की घटनाओं को याद करते हुए राजा राम सिंह भी अपने बेटे किशन सिंह की राह पर ही चलने का मन बना लिये थे। कहते हैं कि सिखों के गुरु तेग बहादुर सिंह की शहीदी की खबर सुनते ही औरंगजेब खुद चल कर उस जगह पर गया था, जहाँ गुरु तेग बहादुर जी का शीष कट कर गिरा हुआ था। जिस जगह पर तेग बहादुर जी का शीष कट कर गिरा था वहाँ पर आज शीषगंज गुरुद्वारा बना दिया गया है। जिस मस्जिद से कुरान की आयतें पढ़ कर यातना देने का फतवा जारी किया जाता था, वह मस्जिद भी उसी जगह पर है। दिल्ली के चाँदनी चौक में स्थित गुरुद्वारा शीष गंज कभी पूरे इस्लाम के लिये प्रतिष्ठा का विषय था। आखिरकार जब इस्लाम कबूल करवाने की जिद पर इसलाम ना कबूलने का हौसला अडिग रहा तब जल्लाद की तलवार चली थी और प्रकाश अपने स्त्रोत में समा कर लीन हो गया था। यह घटना भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ था जिसने पूरे हिंदुस्तान का भविष्य बदलने से रोक दिया था। सिखों के गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की थी उनके पुत्र और सिखों के अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह जी के कहने पर सिखों ने अन्ततः जनेऊ को उतार फेंका तेग बहादुर सिंह तक को मूगलों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करने वाले किशन सिंह बहादुर को इतिहासकारों ने भुला दिया है। मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के पौत्र और राम सिंह के ज्येष्ठ पुत्र किशन सिंह धोला रियासत के जागिरदार और आमेर रियासत के उत्तराधिकारी तो थे ही दारा शूकोह के मित्र और मुख्य सेवक भी थे। अपने अदम्य साहस से औरंगजेब के खिलाफ़ धर्म युद्ध छेड़ने वाले वे पहले योद्धा थे, जिन्होंने धरमत की लड़ाई में औरंगजेब से पराजित होकर युद्ध क्षेत्र से भागे हुए दारा शूकोह का साथ देने के लिए शाहजहाँ के द्वारा मदद माँगने और अपने पिता के द्वारा शाहजहाँ की मदद करने के आदेश का पालन करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। आज तेग बहादुर सिंह जी और उनके पुत्र गुरु गोविन्द सिंह जी के वंश में कोई नहीं बचा है, जबकि दरगाही बाबा और लङ्गरा बाबा के नाम से प्रसिद्ध सरदार किशन सिंह बहादुर जी के वंशज़ अपनी जनेऊ और अपने परम्परिक रीति-रिवाजों के साथ आज भी आबाद हैं। धर्म रक्षार्थ जिस राजकुमार ने अपना सर्वस्व त्याग दिया, उन्हें अपनी जनेऊ पर इतराने वाले हिन्दुओं ने भी भुला दिया है। इनकी समाधि पटना में गङ्गा नदी के किनारे गाय घाट में स्थित श्री चन्द्र उदासी मठ के मुख्य द्वार के सामने आज भी स्थित है और स्थानीय लोगों में दरगाही बाबा की समाधि के नाम से प्रसिद्ध है। शाहजहाँ के दरबार में अपने पिता राजा राम सिंह के वकील के रूप में नियुक्त किये जाने के कारण ये आम लोगों में दरगाही बाबा के नाम से तो अपने साथी हिन्दुओं के लिए लङ्गर लगाने के कारण लङ्गरा बाबा के नाम से भी पहचाने जाते हैं। मैं इन्हीं का वंशज़ हूँ तथा आज भी हमारे वंशजों का घराना! लङ्गरा बाबा किशन सिंह का घराना कहलाता है। दादर के सूबेदार मलिक जीवन की हवेली के पास दारा शूकोह के साथ गिरफ्तार हुए किशन सिंह जी को मलिक जीवन और मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा की मदद से मुक्त कर के अपने परिवार के साथ भगा दिया गया था। 1659 ईस्वी में नांदेड़ से होते हुए पटना की ओर आते समय बाबा किशन सिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र भेदिया के रूप में घुम रहे औरंगजेब के गुप्तचरों से बचने-बचाने के प्रयास में अपनी टोली से भटक कर नांदेड़ में स्थित अपने पूर्वज़ महाराजा भगवन्त दास के छोटे भाई भगवान दास की हवेली में शरण लिये थे। संयोग से वहीं पर गुरु गोविन्द सिंह से मुलाकात होने के बाद पटना में रह रहे अपने परिजनों के बारे में जानकारी मिल पायी थी। उस दौरान मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा और राजा राम सिंह जी के द्वारा भी गुप्त रूप से इन लोगों को आर्थिक सहायता दी जाती थी। जिसकी सूचना मिलने पर औरंगजेब ने उन दोनों के पीछे अपना गुप्तचर लगा दिया था। उन गुप्तचरों में एक ब्राह्मण जाति का वह कर्मचारी भी था जो मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा का भोजन बनाने और पड़ोसने की जिम्मेवारी सम्भालता था। उसी ने मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में रात्रि भोजन के समय मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा को विषयुक्त भोजन परोस दिया था। जिसे खाते ही उनकी तबीयत खराब हुई और भोर होते-होते मौत के आगोश में चले गए थे। जात-पात और ऊँच-नीच के नाम पर हिन्दुओं की धार्मिक एकता को कमजोर करने वालों को आज भी होश नहीं आया है। 24 नवम्बर का यह इतिहास सभी को पता होना चाहिए। इतिहास के वो पृष्ठ जो पढ़ाए नहीं गये वाहे गुरु जी दी खालसा वाहे गुरूजी दी फ़तेह 🙏

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

कुम्भ पूजा क्यों होता है देवी-देवताओं से पहले

✍️By प्रसेनजित सिंह




हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से देवी-देवता हैं जिनकी लोग पूजा-अर्चना करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को त्रिदेवों के रूप में जाना जाता है। ब्रह्मा जी को संसार के रचियता माना गया है, तो वहीं भगवान विष्णु को पालनहार और भोलेनाथ को संहारक माना गया है। इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु और शिव के बहुत से मन्दिर और मन्दिरों के अवशेष देखने को मिलते हैं। लेकिन ब्रह्मा जी के मन्दिर पूरे संसार में केवल 3 ही हैं। उनमें से भी दक्षिणी भारत और थाईलैण्ड में स्थित ब्रह्मा के मन्दिर आदि ब्रह्मा का मन्दिर नहीं है बल्कि ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये प्रह्लाद नन्दन कुम्भ के मन्दिर हैं। विदित हो कि हिरण्यकशिपु नन्दन प्रह्लाद के तीन पुत्रों वीरोचन, कुम्भ और निकुम्भ में से दैत्य राज प्रह्लाद के द्वारा वीरोचन को दैत्यों का अधिपति बनाया गया था, जबकि उनके छोटे भाई कुम्भ को महामंत्री और निकुम्भ सेनापति का पद दिया गया था। जबकि दितिनन्दन वज्राङ्ग की पत्नी वाराङ्गी के गर्भ से उत्पन्न ताड़क ने श्री बड़ी देवी के नाम से विख्यात दिती परमेश्वरी के आग्रह पर उन्हें और उनकी माता को भी अपमानित करने वाले इन्द्र का दमन करने का संकल्प लेकर पारिजात पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या किये थे। अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न कर के करोड़ों वर्षों तक तीनों लोकों पर राज करने का वरदान पाने के बाद इन्द्र को परास्त कर के तीनों लोकों पर धर्म पूर्वक राज करने लगे थे।

वर्तमान में भारतीय राज्य उड़ीसा में जिस स्थान पर महानदी समुद्र में मिलती है, उसी संगम स्थल पर वाराङ्गी नन्दन तारकासुर अपनी राजधानी बना कर रहने लगे। वे अपने सहयोगियों को उनके सामर्थ्य के अनुसार जिस समय पद और अधिकार दे रहे थे, उसी समय प्रह्लाद नन्दन महात्मा कुम्भ को ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। ब्रह्मा जी के पद पर प्रतिष्ठित कुम्भ की नीतियों के कारण तारक ने बन्दीगृह से सभी देवताओं को मुक्त कर दिया था। उनके राज्य में उनकी माता को अपमानित करने वाले इन्द्र और उसे उकसाने वाले देवों के अतिरिक्त कोई दुखी नहीं था। जबकि कुम्भ के द्वारा सबको समान रूप से आदर देने के कारण ये सब के प्रिय बने और देवों के लिए भी पूजनीय बने। प्रजापति कुम्भ के पूर्वज़ विराज भगवान के नाम से विख्यात ब्रह्मा जी स्वार्थ के लिए छल, और झूठ का सहारा लेने के कारण एक बार भगवान शिव के द्वारा और एक बार अपनी अर्धांगनी सावित्री देवी के द्वारा भी शापित होने के कारण भी प्रजापति कुम्भ की तरह नहीं पू़जे जाते हैं। इनकी विस्तृत कथा शिव पुराण और हरिवंश पुराण आदि ग्रन्थों में पढ़ सकते हैं। 

कई लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर जिसने इस संसार की रचना की उनका मन्दिर सिर्फ़ पुष्कर में ही क्यों है? शिव, विष्णु, अग्निदेव, वरूण, इन्द्र, मित्र और पवन आदि देवों की तरह इनकी पूजा क्यों नहीं होती है? अगर आप लोग भी इसके बारे में अञ्जान हैं तो हम आपको इसके पीछे की पौराणिक कथा के बारे में बताते हैं। 

पुराणों के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी ने पृथ्वी की भलाई के लिए यज्ञ का विचार किया और यज्ञ की जगह का चुनाव करने के लिए उन्होंने आकाश से ही अपने एक कमल को पृथ्वी लोक में भेजा और जिस स्थान पर वह कमल गिरा, उसी जगह को यज्ञ के लिए उचित जगह समझ कर यज्ञशाला बनवाने लगे। किवदिंतियों के अनुसार जिस जगह उनका ब्रह्मकमल गिरा था, उसी जगह पर ब्रह्मा जी का मंदिर बना दिया गया और वह स्थान आज भी राजस्थान के पुष्कर शहर में है। कहा जाता है कि जहाँ पर वह पुष्प गिरा था वहाँ एक तालाब बन गया था। उस तालाब के किनारे यज्ञ करने के लिए ब्रह्मा जी पुष्कर पहुंच गए, लेकिन उनकी पत्नी सावित्री नहीं पहुंचीं। यज्ञ स्थल पर सभी देवी-देवता पहुंच चुके थे, लेकिन देवी सावित्री का कुछ पता नहीं था। उनका इन्तजार करते-करते जब लोगों ने देखा कि यज्ञ अनुष्ठान के लिए निर्धारित शुभ मुहूर्त का समय बीतता जा रहा है तब कोई उपाय न देखकर ब्रह्मा जी ने देवी नन्दिनी गाय के मुख से उत्पन्न गायत्री को प्रकट किये और उनसे विवाह कर यज्ञ अनुष्ठान शुरू कर दिये। इस 

यज्ञ आरम्भ होने के कुछ समय बाद देवी सावित्री यज्ञ स्थल पर पहुंचीं तो वहां ब्रह्मा जी के बगल में किसी और स्त्री को बैठे देख कर वे क्रोधित हो गईं। गुस्से में उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दे दिया और कहा कि जाओ इस पृथ्वी लोक में तुम्हारी कहीं पूजा नहीं होगी। हालांकि बाद में जब उनका गुस्सा शांत हुआ और देवताओं ने उनसे श्राप वापस लेने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि मैं अपने श्राप वापस तो नहीं ले सकती मगर धरती पर सिर्फ़ इस पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। इसके अलावा जो कोई भी आपका दूसरा मंदिर बनाएगा, उसका विनाश हो जाएगा। तब से ब्रह्मा जी का मन्दिर कोई नहीं बनाता है। जबकि इस घटना के बाद ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित कुम्भ की पूजा घर-घर में की जाती है। 

ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ प्रजापति कुम्भ ने सरस्वती देवी के अंश से उत्पन्न अपनी तीन पुत्रियों स्वाहा, स्वधा और वषट् का विवाह कौशिक विश्वामित्र नन्दन भगवान अग्निदेव के साथ करने के बाद अग्निदेव को ही यज्ञ भाग का मुख्य अधिकारी बना दिया था। नर्मपुर वासिनी नागकन्या देवी चक्षुस्मति के गर्भ से उत्पन्न कौशिक नन्दन अग्निदेव की पत्नियों स्वाहा से उन्होंने स्वाहाकार अग्नि, स्वधा से स्वधाकार अग्नियों और वषट् से वषटाकार अग्नियों (अध्याय २२, श्लोक संख्या ३०-३३, श्री महाभारते खिलभागे) को उत्पन्न कर सम्पूर्ण जगत में होने वाले यज्ञों के लिए प्राप्त पोषक तत्वों से देवी-देवताओं का भी पोषण करने लगे और देव-दानव, सुर-असुर सब को एक ही वंश से उत्पन्न होने के कारण समान भाव से व्यवहार करते हुए तीनों लोकों पर राज करने लगे। बाद में रूद्र आदि देवों का जन्म भी इन्हीं अग्निदेव के वंश में कुम्भी माताओं के गर्भ से हुआ था। इसके कारण अग्निदेव के वंश में उत्पन्न रूद्रों के वंशज़ कुम्भी बैस और कुम्भरार कहलाये। विदित हो कि लोक तंत्र की जननी कहलाने वाली भूमि पर स्थित बिहार की वर्तमान राजधानी पटना में आज भी कुम्हरार नामक ग्राम स्थित है। यहाँ पर कुम्भी बैस वंशीय राज परिवार में ही उत्पन्न सम्राट अशोक की राजधानी स्थित थी, जिसका भग्नावशेष आज भी स्थित है।


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किसके वंशज़ हैं कुम्भी बैस कहलाने वाले सूर्यवंशी? 

कुम्भी बैस कहलाने वाले कौशिक गोत्रीय लोगों के बारे में एक और कथा प्रचलित है। इसके अनुसार खुद को कुम्भी बैस कहने वाले वैसे समुदाय के लोग भी हैं जो अपना गोत्र कौशिक तो बताते हैं, लेकिन खुद को कौशिक विश्वामित्र भगवान की तरह चन्द्रवंशी कहने के बजाए सूर्यवंशी बताते हैं। जबकि कश्यप वंशीय जिस प्रजापति कुम्भ से सम्बन्धित होने के कारण लोग कुम्भी कहलाते हैं उनसे या चन्द्रवंश में उत्पन्न कौशिक विश्वामित्र भगवान में से कोई भी सूर्यवंशी नहीं हैं। इसके बावजूद किसके वंशज़ हैं वे लोग जो अपने वंश की पहचान सूर्य, चन्द्र और कश्यप वंशीय प्रजापति कुम्भ से सम्बन्धित कुम्भी बैस के रूप में देते हैं? 

सुमेरु की पुत्री भगवती गङ्गा जो अपने पितृ लोक से ज्यादा मेरूगिरी पर स्थित प्रजापति कुम्भ के लोक में निवास करती थीं, इनका पृथ्वी लोक पर अवतरण की कथा सुनाते हुए कौशिक विश्वामित्र भगवान ने दशरथनन्दन श्रीराम चन्द्र जी को सूर्यवंशी राजा सगर पुत्रों के कुम्भी बैस कहलाने का प्रसंग विस्तार से बताये थे। उन्होंने गङ्गा अवतरन की कथा इस प्रकार सुनाना आरम्भ किया- “पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। हिमवान सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा और छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीक गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर स्वछन्द होकर विचरण करने वाली थीं और निर्भय होकर मनमाने मार्गों का अनुसरण करते हुए सर्वत्र विचरण करती रहती थी। उनकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देव लोग विश्व कल्याण की कामना से उन्हें हिमालय से माँग कर अपने साथ स्वर्ग लोक में ले गये। जबकि पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा जो बड़ी तपस्विनी थी, उन्होंने कठोर तप करके महादेव जी को वर रूप में प्राप्त किया।”


कौशिक विश्वामित्र जी के इतना कहते ही दशरथ नन्दन राम ने पूछा, “हे भगवन्! जब गंगा को देव लोग अपने सुर लोक ले गये, तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?” इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, “महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष बीतने पर भी जब भगवती उमा किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं कर पाई। तब शिव पुत्र कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर का वध होने के बाद ही स्वर्ग लोक में देवों के पुनर्स्थापित होने की भविष्यवाणी जानने वाले देवेन्द्र ने काफी समय बीतने पर भी कार्य सिद्ध नहीं होते देख, तारकासुर के वध के लिए सुयोग्य वीर का शिव पुत्र के रूप में जन्म लेने की कामना लेकर देवगण ब्रम्हा जी से प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रेरणा से काम देव को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। जिसके कारण वर्षों बाद महादेव शिव जी के मन में भी सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। लेकिन उमा के साथ विहार करते हुए जब काफी समय व्यतीत होने पर भी देवताओं को अपना अभिष्ट कार्य सम्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई पडा़, तो वे चिन्तातुर होकर इन्द्र ने कौशिक विश्वामित्र भगवान की भार्या चक्षुष्मति नन्दन अग्नि देव से कहा कि तुम चतुरता से शिव जी के पास जाकर देखो की वे क्या कर रहे हैं। इस पर भगवान अग्नि देव! कपोत का रूप धारण कर के जैसे ही शिवजी की गुफा में पहुंचे ब्रम्हा, विष्णु और सभी देव गण भी शिव जी की गुफा के सामने स्थित उस वटवृक्ष के पास पहुंच गए, जिसके नीचे शिव जी अक्सर विश्राम करते थे। लेकिन वहाँ अग्निदेव या शिव जी को न देख कर सदाशिव के भवन के द्वार पर गए और उन्हें उच्च स्वर में पुकारे। इस पर शिव जी के गणों ने बताया कि वे काफी समय से गिरिजा जी के पास हैं। तब देवों ने तारकासुर के वध के लिए महादेव शिव के अंश से सुयोग्य वीर के जन्म की कामना से ब्रह्मा जी के साथ विचार करने लगे कि संसार में ऐसी कौन नारी है जो अमित तेजस्वी सदाशिव के तेज को सम्भाल सकता है? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए अत्यंत आतुर होकर जब महादेव को फिर से पुकारा। तब भक्ति के अधीन रहने वाले शिव जी भगवती गिरजा से विमुख होकर भक्तों के सामने प्रकट हो गये तथा अपने भक्तों के द्वारा यह कहने पर कि आप हमारा अभीष्ट कार्य क्यों नहीं कर रहे? सदाशिव ने कहा कि मैं तुम्हारे ही कार्य में लगा था मगर तुम लोगों के इस तरह अधीर होने से हमारा वीर्य हमारी शैय्या के पास ही गिर गया है। तुम लोगों में से जिसमें क्षमता हो वह उसे धारण कर लो। सदाशिव के इस बात को सुनते ही उस वीर्य की रक्षा करने के लिए विष्णु जी का इशारा पाकर कपोत रूप धारी भगवान अग्नि देव उस वीर्य को अपनी चोंच में धारण कर अपने घर की ओर उड़ गए तथा वशिष्ठ ऋषि की पत्नी देवी अरून्धती के साथ रहने वाली ऋषि पत्नियों में शिव जी के वीर्य को धारण करने के लिए बाँट दिए। ताकि वे शिव पुत्र की माता होने का गौरव पा सकें। लेकिन वे उसके ताप को नहीं सह पायीं तब अग्नि देव ने उसे हिमवान नन्दिनी भगवती उमा की बड़ी बहन देवी गंगा के गर्भ में डाल दिया। समय आने पर भगवती गंगा व्याकुल होकर कुम्भ में चली गई और बड़े जोर से नाद करते हुए सरपत के ढेर पर एक बालक के रूप में कुमार कार्तिकेय को जन्म दिया। देवताओं के द्वारा विहार में बाधा पड़ने से जब उमा शिव पुत्र की माता बनने से वंचित हो गयी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि मुझे गर्भ से वंचित करने वालों! तुम्हीं गर्भ धारण करो और जब वीर्य को मुख में धारण कर ही लिए तो अब से भक्ष्य-अभक्ष्य सभी चीजें खाया करो। भगवती उमा से शापित होते ही गर्भ धारण कर के संसार में लज्जित होने लगे जिससे शिव कृपा से ही उन्हें मुक्ति मिली। इसी बीच सुरलोक में विचरण करती हुई भगवती गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करते हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। इस पर उमा ने गंगा को आश्वासन दिया कि मैं इसके लिये कोई उपाय करती हूँ।


पृथ्वी पर भगवती गङ्गा के अवतरण की यह कथा सुनाते हुए विश्वामित्र जी ने दशरथ नन्दन राम से कहा कि “वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके पिता का नाम बाहु और माता का नाम नन्दिनी था। शत्भिषा नक्षत्र और कुम्भ राशि में जन्में महाराजा सगर को कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति था, जो भगवान नेमिनाथ के नाम से विख्यात राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तप करने लगे। उनके तप से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी को साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की तथा राजा विश्वजीत और राजा रक्तमबोज़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।


दसवें महीने में रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। जबकि रानी सुमति के गर्भ से एक तूम्बीनुमा माँस पिण्ड निकला। जिससे जीरे के आकार के छोटे-छोटे साठ हजार भ्रूण निकले। उन सबका पालन-पोषण घी से भरे हुए साठ हजार कुम्भ में रखकर सावधानी पूर्वक किया गया। असमंजस के जन्म लेने के आठ महीनों के बाद कुम्भ में पल रहे सभी साठ हजार पुत्रों ने भी अपना शरीर पाकर जन्म लिया और असमंजस के साथ पलते हुए सभी राजकुमार युवा हो गये। अपेक्षाकृत महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों से आठ माह ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। यद्यपि वे अपने ज्येष्ठ पुत्र का परित्याग करने से दुःखी तो थे ही, मगर अपने साठ हजार पुत्रों की सहायता से उन्होंने शीघ्र ही अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया। 


अश्वमेध यज्ञ की चर्चा सुनते ही राम ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इसे वृतान्त को सुनाइये।” राम के इस निवेदन से प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी कहने लगे, ”राजा सगर ने हिमालय और विन्ध्याचल के बीच की हरी-भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने उस घोड़े को चुरा कर पृथ्वी के आग्नेय कोण में स्थित सागर तट पर समाधिस्थ कपिल भगवान की कुटिया में उस स्थान पर बाँध दिया जहाँ पर वे अपनी समाधि में लीन थे। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। अपहृत अश्व की तलाश करते हुए उन्होंने पृथ्वी को चारों दिशाओं में खोद डाला लेकिन घोड़ा नहीं मिला। इस क्रम में जो भी राज्य, नगर व ग्राम आये उन्हें अपहृत अश्व की तलाश करते हुए विजित भी करते गए। इस कार्य से असंख्य पृथ्वी वासी प्राणी मारे गये। खोदते-खोदते वे आकाश-पाताल सबको जीत लिए, मगर अश्व का कहीं पता नहीं चला। तब सगर नन्दन कुम्भी पुत्रों के नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की। इस पर ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा कि "ये राजकुमार क्रोध और मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा का दायित्व कपिल भगवान पर है। अतः इन्हें रोकने के लिए वे कुछ न कुछ अवश्य करेंगे।" पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब अश्वमेध यज्ञ के लिए छोड़ा गया घोड़ा और उसको चुराने वाले चोर के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। अपने पुत्रों से अश्व की तलाश करने के लिए किये गये अभियानों के बारे में विस्तार पूर्वक जानने के बाद महाराजा सगर ने अपने पुत्रों को सावधानी पूर्वक सभी वंचित स्थानों में जाकर एक बार फिर से तलाश करने का आदेश दिया। इस पर महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों में से चार पुत्र बर्हकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और शूर सहित असमञ्जस नन्दन राजकुमार अंशुमन दरबार में ही रोक कर सभी शेष पुत्रों को तलाशी से वंचित पृथ्वी के आग्नेय कोण में स्थित सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में भेजा गया। उस क्षेत्र में स्थित कपिल भगवान के आश्रम में जिस स्थान पर कुम्भी भाईयों ने अपने अपहृत अश्व को बन्धा हुआ देखा वहाँ एक तपस्वी को समाधिस्थ देख इन्द्र देव की चाल से अनभिज्ञ होने के कारण समाधिस्थ कपिल भगवान को ही अश्व की चोरी करने वाला समझ कर उन्हें दुर्वचन कहते हुए मारने के लिए दौड़े। इस पर अश्व की चोरी की घटना से अनभिज्ञ कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई और उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के सभी निर्दोष पुत्रों को अपने नेत्र से निकले दिव्य अग्नि की ज्वाला से जला कर भस्म कर दिये। कपिल भगवान की तपोभूमि के पास स्थित जिस जगह पर महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों की अकाल मृत्यु हुई थी, वह जगह कुम्भकोणम के नाम से विख्यात है। 


कपिल आश्रम में हुई इस दुखद घटना की सूचना पाकर महाराजा सगर उस दिव्याग्नि में भष्म होने से बचे चार कुम्भी पुत्रों और असमञ्जस नन्दन अंशुमन को साथ लेकर कपिल भगवान के आश्रम में गये और अपने पुत्रों के द्वारा अनजाने में हुई भूल के लिए क्षमा याचना कर के उन्हें प्रसन्न किये। तत्पश्चात उनके आश्रम से अपने यज्ञ पशु को मुक्त करवा कर अपने यज्ञ को पूरा किये। मगर अकाल मृत्यु के कारण महाराजा सगर के पुत्रों की आत्मा को शान्ति नहीं मिली। वे अपनी मुक्ति के लिए हाहाकार मचाते हुए भटकती रही। उन आत्माओं की शान्ति देने के लिए देवी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए अभियान चलाया गया और उनके जल प्रवाह के स्पर्श से उन्हें मुक्ति दिलाया जा सका। 


इस तरह महाराजा सगर के साठ हजार कुम्भी पुत्रों में से चार पुत्र नष्ट होने से बच गए थे। विष्णु भक्त होने के कारण सूर्यवंश में उत्पन्न उन्हीं कुम्भी पुत्रों के वंशज कुम्भी बैस कहलाये। 

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यूं तो महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों के वंशज़ सूर्य वंशी हैं, लेकिन ये अपना गोत्र कौशिक बतलाते हैं जो चन्द्र वंश में उत्पन्न कौशिक गाधि के पुत्र थे। मगर इक्ष्वाकु वंशी सगर नन्दन शुर और सत्यव्रत नन्दन हरिश्चंद्र सहित शिवपुत्र कार्तिकेय और प्रह्लाद नन्दन कुम्भ का गोत्र भी कौशिक ही क्यों कहलाता है? क्या कौशिक गोत्रीय कुम्भी बैस राजा सगर के ही वंशज हैं या ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये महात्मा कुम्भ के वंशज़ हैं? मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के वंश में उत्पन्न कुम्भी बैस वंशीय हमारे इस वंश की कुल देवी बन्दी मइया कहलाती हैं। मगर ये कौन हैं? बन्दी मइया किसे कहते हैं? कुम्भी बैस वंशीय लोग बर्हगायां, बरगाही, वारङ्गियन, कछवाहा और ब्राह्मणशाही क्षत्रिय के नाम से भी मशहूर हैं। मगर इसका क्या कारण है? वंश, गोत्र और प्रवर आदि का क्या अर्थ है? ऐसे कई सवालों का जवाब जानने के लिए हमारे संगठन "कौशिक कंसल्टेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो" के द्वारा प्रेषित सन्देशों को देखते रहें तथा पसन्द आने पर हमारे पेज़ को लाइक कर अधिकाधिक लोगों में शेयर करें। 


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सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

कौशिक कृत महर्षि भृगु साठिका


 । । महर्षि भृगु साठिका ।।

जिनके सुमिरन से मिटै, सकल कलुष अज्ञान।

सो गणेश शारद सहित, करहु मोर कल्यान।।

वन्दौं सबके चरण रज, परम्परा गुरुदेव।

महामना, सर्वेश्वरा, महाकाल मुनिदेव। ।

बलिश्वर पद वन्दिकर, मुनि श्रीराम उर धारि।

वरनौ ऋषि भृगुनाथ यश, करतल गत फल चारि। ।

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जय भृगुनाथ योग बल आगर।
सकल सिद्धिदायक सुख सागर।। 1।।

विश्व सुमंगल नर तनुधारी।
शुचि गंग तट विपिन विहारी।।2।।

भृगुक्षेत्र सुरसरि के तीरा।
बलिया जनपद अति गम्भीरा। ।3।।

सिद्ध तपोधन दर्दर स्वामी।
मन-वच-क्रम गुरु पद अनुगामी। ।4।।

तेहि समीप भृग्वाश्रम धामा।
भृगुनाथ है पूरन कामा। । 5।।

स्वर्ग धाम निकट अति भाई।
एक नगरिका सुषा सुहाई। । 6।।

ऋषि मरीचि से उद्गम भाई।
यही महॅ कश्यप वंश सुहाई।।7।।

ता कुल भयऊ प्रचेता नेमी।
होय विनम्र संत सुर सेवी।।8।।

तिनकी भार्या वीरणी रानी।
गाथा वेद-पुरान बखानी। ।9।।

तिनके सदन युगल सुत होई।
जनम-जनम के अघ सब खोई। ।10।।

भृगु अंगिरा है दोउ नामा।
तेज प्रताप अलौकिक धामा।। 11।।

तरुण अवस्था प्रविसति भयऊ।
गुरु सेवा में मन दोउ लयऊ। ।12।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागो।
आत्मज्ञान होवन है लागो।।13।।

परम वीतराग ब्रह्मचारी।
मातु समान लखै पर नारी।।14।।

कंचन को मिट्टी करि जाना।
समदर्शी तुम्ह ज्ञान निधाना।।15।।

दैत्यराज हिरण्य की कन्या।
कोमल गात नाम था दिव्या।।16।।

भृगु-दिव्या की हुई सगाई।
ब्रह्मा-वीरणी मन हरसाई। ।17।।

दानव राज पुलोमा भी आये।
निज सुता पौलमी को लाये।।18।।

सिरजनहार कृपा अब कीजै।
भृगु-पौलमी ब्याह कर लीजै।।19।।

ब्रह्मलोक में खुशियां छाई।
तीनों लोक बजी शहनाई।।20।।

दिव्या-भृगु के सुत दो होई।
त्वष्टा, शुक्र नाम कर जोई।।21।।

भृगु-पौलमी कर युगल प्रमाना।
च्यवन, ऋचीक है जिनके नामा।।22।।

काल कराल समय नियराई।
देव-दैत्य मॅह भई लड़ाई। ।23।।

ब्रह्मानुज विष्णु कर कामा।
देव गणों का करें कल्याना।। 24।।

भृगु भार्या दिव्या गई मारी।
चारु दिशा फैली अँधियारी।।25।।

सुषा छोड़ि मंदराचल आये।
ऋषिन जुटायू से यज्ञ कराये।।26।।

ऋषियन मॅह चिन्ता यह छाई।
कवन बड़ा देवन मॅह भाई।। 27।।

ऋषिन-मुनिन मन जागी इच्छा।
कहे भृगु के करेें परीक्षा।।28।।

गये पितृलोक ब्रह्मा नन्दन।
जहाँ विराज रहे चतुरानन।।29।।

ऋषि-मुनि कारन देव सुखारी।
तिनके कोऊ नाही पुछारी।।30।।

शाप दियो पितु को भृगुनाथा।
ऋषि-मुनिजन का ऊँचा माथा।।31।।

ब्रह्म लोक महिमा घटि जाही।
ब्रह्मा पूज्य होही अब नाही।।32।।

गये शिवलोक भृगु आचारी।
जहाँ विराजत है त्रिपुरारी।।33।।

रुद्रगणों ने दिया भगाई।
भृगु मुनि तब गये रिसिआई।। 34।।

शिव को घोर तामसी माना।
जिनसे हो  सबके कल्याना।।35।।

कुपित भयउ कैलाश विहारी।
रुद्रगणों को तुरत निकारी।।36।।

कर जोरे विनती सब कीन्हा।
मन मुसुकाई आपु चल दीन्हा।।37।।

शिवलोक उत्तर दिशि भाई।
विष्णु लोक अति दिव्य सुहाई।।38।।

क्षीर सागर में करत विहारा।
लक्ष्मी संग जग पालनहारा।।39।।

लीला देखि मुनि गए रिसियाई।
कैसे जगत चले रे भाई।।40।।

विष्णु वक्ष पर कीन्ह प्रहारा।
तीनहूं लोक मचे हहकारा।।41।।

विष्णु ने तब पद गह लीन्हा।
कहा नाथ आप भल कीन्हा।।42।।

आत्म स्वरुप विज्ञ पहचाना।
महिमामय विष्णु को माना।।43।।

दण्डाचार्य मरीचि मुनि आये।
भृगु मुनि को वो दण्ड सुनाये।।44।।

तुम्हने कियो त्रिदेव अपमाना।
नहि कल्यान काल नियराना।।45।।

पाप विमोचन एक अधारा।
विमुक्त भूमि गंगा की धारा।।46।।

हाथ जोरि विनती मुनि कीन्हा।
विमुक्त भूमि का देहू चीन्हा।।47।।

मुदित मरिचि बोले मुसकाई।
तीरथ भ्रमन करौं तुम्ह सांई।।48।।

जहाँ गिरे मृगछाल तुम्हारी।
समझौ भूमि पाप से तारी।।49।।

भ्रमनत भृगुमुनि बलिया आये।
सुरसरि तट पर धूनि रमाये।।50।।

कटि से भू पर गिरी मृगछाला।
भुज अजान बाल घुँघराला।51।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागे।
विष्णु नाम जप करन लागे।।52।।

सतयुग के वो दिन थे न्यारे।
दर्दर चेला भृगु के प्यारे।।53।।

दर्दर से सरयू मँगवाये।
यहाँ भृगुमुनि यज्ञ कराये।।54।

गंगा-सरयू संगम अविनाशी।
संगम कार्तिक पूरनमासी।।55।।

जुटे करोड़ो देव देह धारी।
अचरज करन लगे नर-नारी।।56।।

जय-जय भृगुमुनि दीन दयाला।
दया सुधा बरसेहूं सब काला।।57।।

सब संकट पल माहि बिलावै।
जे धरि ध्यान हृदय गुन गावैं।।58।।

सब संकल्प सिद्ध हो ताके।
जो जन चरण-शरण गह आके।।59।।

परम दयामय हृदय तुम्हारो।
शरणागत को शीघ्र उबारो।।60।।

आरत भक्तन के हित भाई।
कौशिकेय यह चरित बनाई।।61।। 

🏺🌷🌺🌷🏺🌷🌺🌷🏺🌷🌺🌷🏺

भृगु संहिता रची करि, भक्तन को सुख दीन्ह।

दर्दर को आशीष दे, आपु गमन तब कीन्ह।।

पावन संगम तट मह, कीन्ह देह का त्याग।

माई बन्दी के भक्तन को, देहू अमित वैराग।।

दियो समाधि अवशेष की, भृग्वाश्रम निज धाम।

कर दर्शन भृगु धाम के, सिद्व होय सब काम।

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