मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

कुम्भ पूजा क्यों होता है देवी-देवताओं से पहले

✍️By प्रसेनजित सिंह




हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से देवी-देवता हैं जिनकी लोग पूजा-अर्चना करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश को त्रिदेवों के रूप में जाना जाता है। ब्रह्मा जी को संसार के रचियता माना गया है, तो वहीं भगवान विष्णु को पालनहार और भोलेनाथ को संहारक माना गया है। इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु और शिव के बहुत से मन्दिर और मन्दिरों के अवशेष देखने को मिलते हैं। लेकिन ब्रह्मा जी के मन्दिर पूरे संसार में केवल 3 ही हैं। उनमें से भी दक्षिणी भारत और थाईलैण्ड में स्थित ब्रह्मा के मन्दिर आदि ब्रह्मा का मन्दिर नहीं है बल्कि ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये प्रह्लाद नन्दन कुम्भ के मन्दिर हैं। विदित हो कि हिरण्यकशिपु नन्दन प्रह्लाद के तीन पुत्रों वीरोचन, कुम्भ और निकुम्भ में से दैत्य राज प्रह्लाद के द्वारा वीरोचन को दैत्यों का अधिपति बनाया गया था, जबकि उनके छोटे भाई कुम्भ को महामंत्री और निकुम्भ सेनापति का पद दिया गया था। जबकि दितिनन्दन वज्राङ्ग की पत्नी वाराङ्गी के गर्भ से उत्पन्न ताड़क ने श्री बड़ी देवी के नाम से विख्यात दिती परमेश्वरी के आग्रह पर उन्हें और उनकी माता को भी अपमानित करने वाले इन्द्र का दमन करने का संकल्प लेकर पारिजात पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या किये थे। अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न कर के करोड़ों वर्षों तक तीनों लोकों पर राज करने का वरदान पाने के बाद इन्द्र को परास्त कर के तीनों लोकों पर धर्म पूर्वक राज करने लगे थे।

वर्तमान में भारतीय राज्य उड़ीसा में जिस स्थान पर महानदी समुद्र में मिलती है, उसी संगम स्थल पर वाराङ्गी नन्दन तारकासुर अपनी राजधानी बना कर रहने लगे। वे अपने सहयोगियों को उनके सामर्थ्य के अनुसार जिस समय पद और अधिकार दे रहे थे, उसी समय प्रह्लाद नन्दन महात्मा कुम्भ को ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। ब्रह्मा जी के पद पर प्रतिष्ठित कुम्भ की नीतियों के कारण तारक ने बन्दीगृह से सभी देवताओं को मुक्त कर दिया था। उनके राज्य में उनकी माता को अपमानित करने वाले इन्द्र और उसे उकसाने वाले देवों के अतिरिक्त कोई दुखी नहीं था। जबकि कुम्भ के द्वारा सबको समान रूप से आदर देने के कारण ये सब के प्रिय बने और देवों के लिए भी पूजनीय बने। प्रजापति कुम्भ के पूर्वज़ विराज भगवान के नाम से विख्यात ब्रह्मा जी स्वार्थ के लिए छल, और झूठ का सहारा लेने के कारण एक बार भगवान शिव के द्वारा और एक बार अपनी अर्धांगनी सावित्री देवी के द्वारा भी शापित होने के कारण भी प्रजापति कुम्भ की तरह नहीं पू़जे जाते हैं। इनकी विस्तृत कथा शिव पुराण और हरिवंश पुराण आदि ग्रन्थों में पढ़ सकते हैं। 

कई लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर जिसने इस संसार की रचना की उनका मन्दिर सिर्फ़ पुष्कर में ही क्यों है? शिव, विष्णु, अग्निदेव, वरूण, इन्द्र, मित्र और पवन आदि देवों की तरह इनकी पूजा क्यों नहीं होती है? अगर आप लोग भी इसके बारे में अञ्जान हैं तो हम आपको इसके पीछे की पौराणिक कथा के बारे में बताते हैं। 

पुराणों के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी ने पृथ्वी की भलाई के लिए यज्ञ का विचार किया और यज्ञ की जगह का चुनाव करने के लिए उन्होंने आकाश से ही अपने एक कमल को पृथ्वी लोक में भेजा और जिस स्थान पर वह कमल गिरा, उसी जगह को यज्ञ के लिए उचित जगह समझ कर यज्ञशाला बनवाने लगे। किवदिंतियों के अनुसार जिस जगह उनका ब्रह्मकमल गिरा था, उसी जगह पर ब्रह्मा जी का मंदिर बना दिया गया और वह स्थान आज भी राजस्थान के पुष्कर शहर में है। कहा जाता है कि जहाँ पर वह पुष्प गिरा था वहाँ एक तालाब बन गया था। उस तालाब के किनारे यज्ञ करने के लिए ब्रह्मा जी पुष्कर पहुंच गए, लेकिन उनकी पत्नी सावित्री नहीं पहुंचीं। यज्ञ स्थल पर सभी देवी-देवता पहुंच चुके थे, लेकिन देवी सावित्री का कुछ पता नहीं था। उनका इन्तजार करते-करते जब लोगों ने देखा कि यज्ञ अनुष्ठान के लिए निर्धारित शुभ मुहूर्त का समय बीतता जा रहा है तब कोई उपाय न देखकर ब्रह्मा जी ने देवी नन्दिनी गाय के मुख से उत्पन्न गायत्री को प्रकट किये और उनसे विवाह कर यज्ञ अनुष्ठान शुरू कर दिये। इस 

यज्ञ आरम्भ होने के कुछ समय बाद देवी सावित्री यज्ञ स्थल पर पहुंचीं तो वहां ब्रह्मा जी के बगल में किसी और स्त्री को बैठे देख कर वे क्रोधित हो गईं। गुस्से में उन्होंने ब्रह्मा जी को श्राप दे दिया और कहा कि जाओ इस पृथ्वी लोक में तुम्हारी कहीं पूजा नहीं होगी। हालांकि बाद में जब उनका गुस्सा शांत हुआ और देवताओं ने उनसे श्राप वापस लेने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि मैं अपने श्राप वापस तो नहीं ले सकती मगर धरती पर सिर्फ़ इस पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। इसके अलावा जो कोई भी आपका दूसरा मंदिर बनाएगा, उसका विनाश हो जाएगा। तब से ब्रह्मा जी का मन्दिर कोई नहीं बनाता है। जबकि इस घटना के बाद ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर प्रतिष्ठित कुम्भ की पूजा घर-घर में की जाती है। 

ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ प्रजापति कुम्भ ने सरस्वती देवी के अंश से उत्पन्न अपनी तीन पुत्रियों स्वाहा, स्वधा और वषट् का विवाह कौशिक विश्वामित्र नन्दन भगवान अग्निदेव के साथ करने के बाद अग्निदेव को ही यज्ञ भाग का मुख्य अधिकारी बना दिया था। नर्मपुर वासिनी नागकन्या देवी चक्षुस्मति के गर्भ से उत्पन्न कौशिक नन्दन अग्निदेव की पत्नियों स्वाहा से उन्होंने स्वाहाकार अग्नि, स्वधा से स्वधाकार अग्नियों और वषट् से वषटाकार अग्नियों (अध्याय २२, श्लोक संख्या ३०-३३, श्री महाभारते खिलभागे) को उत्पन्न कर सम्पूर्ण जगत में होने वाले यज्ञों के लिए प्राप्त पोषक तत्वों से देवी-देवताओं का भी पोषण करने लगे और देव-दानव, सुर-असुर सब को एक ही वंश से उत्पन्न होने के कारण समान भाव से व्यवहार करते हुए तीनों लोकों पर राज करने लगे। बाद में रूद्र आदि देवों का जन्म भी इन्हीं अग्निदेव के वंश में कुम्भी माताओं के गर्भ से हुआ था। इसके कारण अग्निदेव के वंश में उत्पन्न रूद्रों के वंशज़ कुम्भी बैस और कुम्भरार कहलाये। विदित हो कि लोक तंत्र की जननी कहलाने वाली भूमि पर स्थित बिहार की वर्तमान राजधानी पटना में आज भी कुम्हरार नामक ग्राम स्थित है। यहाँ पर कुम्भी बैस वंशीय राज परिवार में ही उत्पन्न सम्राट अशोक की राजधानी स्थित थी, जिसका भग्नावशेष आज भी स्थित है।


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किसके वंशज़ हैं कुम्भी बैस कहलाने वाले सूर्यवंशी? 

कुम्भी बैस कहलाने वाले कौशिक गोत्रीय लोगों के बारे में एक और कथा प्रचलित है। इसके अनुसार खुद को कुम्भी बैस कहने वाले वैसे समुदाय के लोग भी हैं जो अपना गोत्र कौशिक तो बताते हैं, लेकिन खुद को कौशिक विश्वामित्र भगवान की तरह चन्द्रवंशी कहने के बजाए सूर्यवंशी बताते हैं। जबकि कश्यप वंशीय जिस प्रजापति कुम्भ से सम्बन्धित होने के कारण लोग कुम्भी कहलाते हैं उनसे या चन्द्रवंश में उत्पन्न कौशिक विश्वामित्र भगवान में से कोई भी सूर्यवंशी नहीं हैं। इसके बावजूद किसके वंशज़ हैं वे लोग जो अपने वंश की पहचान सूर्य, चन्द्र और कश्यप वंशीय प्रजापति कुम्भ से सम्बन्धित कुम्भी बैस के रूप में देते हैं? 

सुमेरु की पुत्री भगवती गङ्गा जो अपने पितृ लोक से ज्यादा मेरूगिरी पर स्थित प्रजापति कुम्भ के लोक में निवास करती थीं, इनका पृथ्वी लोक पर अवतरण की कथा सुनाते हुए कौशिक विश्वामित्र भगवान ने दशरथनन्दन श्रीराम चन्द्र जी को सूर्यवंशी राजा सगर पुत्रों के कुम्भी बैस कहलाने का प्रसंग विस्तार से बताये थे। उन्होंने गङ्गा अवतरन की कथा इस प्रकार सुनाना आरम्भ किया- “पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। हिमवान सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा और छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीक गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर स्वछन्द होकर विचरण करने वाली थीं और निर्भय होकर मनमाने मार्गों का अनुसरण करते हुए सर्वत्र विचरण करती रहती थी। उनकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देव लोग विश्व कल्याण की कामना से उन्हें हिमालय से माँग कर अपने साथ स्वर्ग लोक में ले गये। जबकि पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा जो बड़ी तपस्विनी थी, उन्होंने कठोर तप करके महादेव जी को वर रूप में प्राप्त किया।”


कौशिक विश्वामित्र जी के इतना कहते ही दशरथ नन्दन राम ने पूछा, “हे भगवन्! जब गंगा को देव लोग अपने सुर लोक ले गये, तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?” इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, “महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष बीतने पर भी जब भगवती उमा किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं कर पाई। तब शिव पुत्र कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर का वध होने के बाद ही स्वर्ग लोक में देवों के पुनर्स्थापित होने की भविष्यवाणी जानने वाले देवेन्द्र ने काफी समय बीतने पर भी कार्य सिद्ध नहीं होते देख, तारकासुर के वध के लिए सुयोग्य वीर का शिव पुत्र के रूप में जन्म लेने की कामना लेकर देवगण ब्रम्हा जी से प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रेरणा से काम देव को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। जिसके कारण वर्षों बाद महादेव शिव जी के मन में भी सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। लेकिन उमा के साथ विहार करते हुए जब काफी समय व्यतीत होने पर भी देवताओं को अपना अभिष्ट कार्य सम्पन्न होता हुआ नहीं दिखाई पडा़, तो वे चिन्तातुर होकर इन्द्र ने कौशिक विश्वामित्र भगवान की भार्या चक्षुष्मति नन्दन अग्नि देव से कहा कि तुम चतुरता से शिव जी के पास जाकर देखो की वे क्या कर रहे हैं। इस पर भगवान अग्नि देव! कपोत का रूप धारण कर के जैसे ही शिवजी की गुफा में पहुंचे ब्रम्हा, विष्णु और सभी देव गण भी शिव जी की गुफा के सामने स्थित उस वटवृक्ष के पास पहुंच गए, जिसके नीचे शिव जी अक्सर विश्राम करते थे। लेकिन वहाँ अग्निदेव या शिव जी को न देख कर सदाशिव के भवन के द्वार पर गए और उन्हें उच्च स्वर में पुकारे। इस पर शिव जी के गणों ने बताया कि वे काफी समय से गिरिजा जी के पास हैं। तब देवों ने तारकासुर के वध के लिए महादेव शिव के अंश से सुयोग्य वीर के जन्म की कामना से ब्रह्मा जी के साथ विचार करने लगे कि संसार में ऐसी कौन नारी है जो अमित तेजस्वी सदाशिव के तेज को सम्भाल सकता है? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए अत्यंत आतुर होकर जब महादेव को फिर से पुकारा। तब भक्ति के अधीन रहने वाले शिव जी भगवती गिरजा से विमुख होकर भक्तों के सामने प्रकट हो गये तथा अपने भक्तों के द्वारा यह कहने पर कि आप हमारा अभीष्ट कार्य क्यों नहीं कर रहे? सदाशिव ने कहा कि मैं तुम्हारे ही कार्य में लगा था मगर तुम लोगों के इस तरह अधीर होने से हमारा वीर्य हमारी शैय्या के पास ही गिर गया है। तुम लोगों में से जिसमें क्षमता हो वह उसे धारण कर लो। सदाशिव के इस बात को सुनते ही उस वीर्य की रक्षा करने के लिए विष्णु जी का इशारा पाकर कपोत रूप धारी भगवान अग्नि देव उस वीर्य को अपनी चोंच में धारण कर अपने घर की ओर उड़ गए तथा वशिष्ठ ऋषि की पत्नी देवी अरून्धती के साथ रहने वाली ऋषि पत्नियों में शिव जी के वीर्य को धारण करने के लिए बाँट दिए। ताकि वे शिव पुत्र की माता होने का गौरव पा सकें। लेकिन वे उसके ताप को नहीं सह पायीं तब अग्नि देव ने उसे हिमवान नन्दिनी भगवती उमा की बड़ी बहन देवी गंगा के गर्भ में डाल दिया। समय आने पर भगवती गंगा व्याकुल होकर कुम्भ में चली गई और बड़े जोर से नाद करते हुए सरपत के ढेर पर एक बालक के रूप में कुमार कार्तिकेय को जन्म दिया। देवताओं के द्वारा विहार में बाधा पड़ने से जब उमा शिव पुत्र की माता बनने से वंचित हो गयी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि मुझे गर्भ से वंचित करने वालों! तुम्हीं गर्भ धारण करो और जब वीर्य को मुख में धारण कर ही लिए तो अब से भक्ष्य-अभक्ष्य सभी चीजें खाया करो। भगवती उमा से शापित होते ही गर्भ धारण कर के संसार में लज्जित होने लगे जिससे शिव कृपा से ही उन्हें मुक्ति मिली। इसी बीच सुरलोक में विचरण करती हुई भगवती गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करते हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। इस पर उमा ने गंगा को आश्वासन दिया कि मैं इसके लिये कोई उपाय करती हूँ।


पृथ्वी पर भगवती गङ्गा के अवतरण की यह कथा सुनाते हुए विश्वामित्र जी ने दशरथ नन्दन राम से कहा कि “वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके पिता का नाम बाहु और माता का नाम नन्दिनी था। शत्भिषा नक्षत्र और कुम्भ राशि में जन्में महाराजा सगर को कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति था, जो भगवान नेमिनाथ के नाम से विख्यात राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तप करने लगे। उनके तप से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी को साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की तथा राजा विश्वजीत और राजा रक्तमबोज़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।


दसवें महीने में रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। जबकि रानी सुमति के गर्भ से एक तूम्बीनुमा माँस पिण्ड निकला। जिससे जीरे के आकार के छोटे-छोटे साठ हजार भ्रूण निकले। उन सबका पालन-पोषण घी से भरे हुए साठ हजार कुम्भ में रखकर सावधानी पूर्वक किया गया। असमंजस के जन्म लेने के आठ महीनों के बाद कुम्भ में पल रहे सभी साठ हजार पुत्रों ने भी अपना शरीर पाकर जन्म लिया और असमंजस के साथ पलते हुए सभी राजकुमार युवा हो गये। अपेक्षाकृत महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों से आठ माह ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। यद्यपि वे अपने ज्येष्ठ पुत्र का परित्याग करने से दुःखी तो थे ही, मगर अपने साठ हजार पुत्रों की सहायता से उन्होंने शीघ्र ही अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया। 


अश्वमेध यज्ञ की चर्चा सुनते ही राम ने ब्रह्मर्षि विश्वामित्र जी से कहा, “गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इसे वृतान्त को सुनाइये।” राम के इस निवेदन से प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी कहने लगे, ”राजा सगर ने हिमालय और विन्ध्याचल के बीच की हरी-भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने उस घोड़े को चुरा कर पृथ्वी के आग्नेय कोण में स्थित सागर तट पर समाधिस्थ कपिल भगवान की कुटिया में उस स्थान पर बाँध दिया जहाँ पर वे अपनी समाधि में लीन थे। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। अपहृत अश्व की तलाश करते हुए उन्होंने पृथ्वी को चारों दिशाओं में खोद डाला लेकिन घोड़ा नहीं मिला। इस क्रम में जो भी राज्य, नगर व ग्राम आये उन्हें अपहृत अश्व की तलाश करते हुए विजित भी करते गए। इस कार्य से असंख्य पृथ्वी वासी प्राणी मारे गये। खोदते-खोदते वे आकाश-पाताल सबको जीत लिए, मगर अश्व का कहीं पता नहीं चला। तब सगर नन्दन कुम्भी पुत्रों के नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की। इस पर ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा कि "ये राजकुमार क्रोध और मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा का दायित्व कपिल भगवान पर है। अतः इन्हें रोकने के लिए वे कुछ न कुछ अवश्य करेंगे।" पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब अश्वमेध यज्ञ के लिए छोड़ा गया घोड़ा और उसको चुराने वाले चोर के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। अपने पुत्रों से अश्व की तलाश करने के लिए किये गये अभियानों के बारे में विस्तार पूर्वक जानने के बाद महाराजा सगर ने अपने पुत्रों को सावधानी पूर्वक सभी वंचित स्थानों में जाकर एक बार फिर से तलाश करने का आदेश दिया। इस पर महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों में से चार पुत्र बर्हकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और शूर सहित असमञ्जस नन्दन राजकुमार अंशुमन दरबार में ही रोक कर सभी शेष पुत्रों को तलाशी से वंचित पृथ्वी के आग्नेय कोण में स्थित सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में भेजा गया। उस क्षेत्र में स्थित कपिल भगवान के आश्रम में जिस स्थान पर कुम्भी भाईयों ने अपने अपहृत अश्व को बन्धा हुआ देखा वहाँ एक तपस्वी को समाधिस्थ देख इन्द्र देव की चाल से अनभिज्ञ होने के कारण समाधिस्थ कपिल भगवान को ही अश्व की चोरी करने वाला समझ कर उन्हें दुर्वचन कहते हुए मारने के लिए दौड़े। इस पर अश्व की चोरी की घटना से अनभिज्ञ कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई और उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के सभी निर्दोष पुत्रों को अपने नेत्र से निकले दिव्य अग्नि की ज्वाला से जला कर भस्म कर दिये। कपिल भगवान की तपोभूमि के पास स्थित जिस जगह पर महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों की अकाल मृत्यु हुई थी, वह जगह कुम्भकोणम के नाम से विख्यात है। 


कपिल आश्रम में हुई इस दुखद घटना की सूचना पाकर महाराजा सगर उस दिव्याग्नि में भष्म होने से बचे चार कुम्भी पुत्रों और असमञ्जस नन्दन अंशुमन को साथ लेकर कपिल भगवान के आश्रम में गये और अपने पुत्रों के द्वारा अनजाने में हुई भूल के लिए क्षमा याचना कर के उन्हें प्रसन्न किये। तत्पश्चात उनके आश्रम से अपने यज्ञ पशु को मुक्त करवा कर अपने यज्ञ को पूरा किये। मगर अकाल मृत्यु के कारण महाराजा सगर के पुत्रों की आत्मा को शान्ति नहीं मिली। वे अपनी मुक्ति के लिए हाहाकार मचाते हुए भटकती रही। उन आत्माओं की शान्ति देने के लिए देवी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए अभियान चलाया गया और उनके जल प्रवाह के स्पर्श से उन्हें मुक्ति दिलाया जा सका। 


इस तरह महाराजा सगर के साठ हजार कुम्भी पुत्रों में से चार पुत्र नष्ट होने से बच गए थे। विष्णु भक्त होने के कारण सूर्यवंश में उत्पन्न उन्हीं कुम्भी पुत्रों के वंशज कुम्भी बैस कहलाये। 

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यूं तो महाराजा सगर के कुम्भी पुत्रों के वंशज़ सूर्य वंशी हैं, लेकिन ये अपना गोत्र कौशिक बतलाते हैं जो चन्द्र वंश में उत्पन्न कौशिक गाधि के पुत्र थे। मगर इक्ष्वाकु वंशी सगर नन्दन शुर और सत्यव्रत नन्दन हरिश्चंद्र सहित शिवपुत्र कार्तिकेय और प्रह्लाद नन्दन कुम्भ का गोत्र भी कौशिक ही क्यों कहलाता है? क्या कौशिक गोत्रीय कुम्भी बैस राजा सगर के ही वंशज हैं या ताड़कासुर के द्वारा ब्रह्मा के पद पर आरूढ़ किये गये महात्मा कुम्भ के वंशज़ हैं? मिर्ज़ा राजा जय सिंह बाबा के वंश में उत्पन्न कुम्भी बैस वंशीय हमारे इस वंश की कुल देवी बन्दी मइया कहलाती हैं। मगर ये कौन हैं? बन्दी मइया किसे कहते हैं? कुम्भी बैस वंशीय लोग बर्हगायां, बरगाही, वारङ्गियन, कछवाहा और ब्राह्मणशाही क्षत्रिय के नाम से भी मशहूर हैं। मगर इसका क्या कारण है? वंश, गोत्र और प्रवर आदि का क्या अर्थ है? ऐसे कई सवालों का जवाब जानने के लिए हमारे संगठन "कौशिक कंसल्टेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो" के द्वारा प्रेषित सन्देशों को देखते रहें तथा पसन्द आने पर हमारे पेज़ को लाइक कर अधिकाधिक लोगों में शेयर करें। 


कुम्भी बैस वंशीय अच्छी लेखकीय क्षमता वाले हिन्दी भाषी लेखकों, कवियों, गीतकारों, शोधकर्ताओं तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं का भारत सरकार से मान्‍यता प्राप्त हमारे संगठन कौशिक कंसल्टेंसी इंटेलिजेंस ब्यूरो (केसीआईबी) की सदस्यता के लिए स्वागत है। हमारे शोध कार्य तथा ऐतिहासिक महत्व के स्थलों के विकास के कार्यों में सहायता करने के लिए इच्छुक समाज सेवियों से इस वंश से सम्बन्धित पौराणिक ग्रंथ, पाण्डूलिपियां, स्वरचित साहित्यिक कृतियां आदि दान सामग्री आमंत्रित है। 


सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

मेरा मन यायावर : कविता संग्रह



मेरा मन यायावर (कविता संग्रह)
रचना - प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द


 यूं गुमां न करो (गज़ल)

साथ में हो तो हँस के भी बोलो जरा।

दूर होते किसे कौन याद आएगा।। 

पास में रह के भी दूर रहते हो क्यों। 

मरने के बाद फिर न ये पल आएगा।।

साथ रहते मेरे पर ये मुँह फेर के। 

बूरे पल में तेरे कौन काम आएगा।। 

सोच लो हाल तेरा क्या होगा सनम। 

जब ये दिल भी अचानक ही छोड़ जाएगा।।

तब ही कहता हूँ मैं यूं गुमां न करो।

यह जवानी तो एक दिन ढ़ल जाएगा।।

हर पहर आग बन कर के रहते होते हैं और क्यों? 

वक्त की आँधियों में ये बुझ जाएगा।। 

जी लो हँस कर ये पल जब तलक साथ है।

क्या पता साँस यह कब निकल जाएगा।।

साथ में हो तो हँस के भी बोलो जरा।

दूर होते किसे कौन याद आएगा।। 

- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी 


तू भी कर यायावरी (कविता) 

खूब लिखी तूने हसरत, यार हँसने के लिए।

पर शरारत क्यों करेगा, कोई फँसने के लिए।।

वो जमाना अब नहीं, जब शायरों का जोर था।

दिल मचलता था समां तक, हुस्न का तब दौर था।।

अब अन्धेरा छा गया है, दिन में भी रात सा।

कुछ नहीं दिखता है अब, ईमान हो गया खाक सा।।

क्या हँसाऊं यार तुमको, बेदिलों के बीच में।

कैसे कलियों को खिलाऊं, बेबसी के बीच में।।

आइना है वक्त ही यह, खुद पे हँसने के लिए।

मत हँसो बेजा बनो, गम्भीर दुनियाँ के लिए।।

गर तुम्हें अच्छी लगे, मेरी मुकम्मल शायरी।

कुछ नया करने का प्रण ले, तू भी कर यायावरी।


- (उदासी सन्त, कवि, पूर्व पत्रकार और समाजसेवी स्वामी सत्यानन्द दास प्रसेनजीत सिंह महाराज द्वारा रचित कविता संग्रह "मेरा मन यायावर" से उद्धृत) 


मासुम (भारत कविता) 

बहुत मासुम लगती हो।

बहुत परेशान लगती हो।

झलकते आँख के आँसू

तेरे तकलीफ़ कहते हैं।। 

सितम कुछ सह रही लेकिन

नहीं मुँह खोलती तुम हो। 

मगर मैं अश्क से ही हूँ

पकड़ता नब्ज हर दिल का।

भले ही दर्द तुम सह लो

मगर यह छुप नहीं पाती।

किनारा जब नहीं मिलता

है किश्ती डूब यह जाती।। 

मगर विश्वास तुम करना

प्रभू के नाम को जपना।

सभी दुख दूर होंगे ही

नहीं तो याद मुझे करना।।


अपना बनाऊँ किसको 

चुपचाप आके तूने, 

मुझे चादर ओढ़ा दिया। 

सपनों में मैं था खोया।

तूने दिल को चुरा लिया।।


महफिल में जब मैं पूछा, 

तूने बांहें छुरा लिया।

गलियों से जब मैं गुजरा, 

तूने फिर क्यों बुला लिया।।


तेरे दिल में बात क्या थी

कभी तूने नहीं कहा।

पर जो तू चाहती थी 

गजरों ने बता दिया।।


चुपचाप आके तूने

मुझे फिर से जो छुआ।

तेरे अधरों की सुरसुरी ने

मुझे पागल बना दिया।।


पर मैं जान बुझ कर

बेसुध सा पड़ा रहा।

तेरे गेसुओं के बादल 

में गुपचुप छुपा रहा।।


पर जब आँख खोला

तब तुम डर चुकी थी।

पर ज्यों ही मुस्कुराया 

शर्मा के हट चुकी थी।।


पर मैं जिद में अपने

फिर से खो गया था।

ईश्वर का नाम लेकर

भक्ति में रम गया था।। 


इस बात से है देखा

तुम्हें छुप के आहें भरते।

खुली खिड़कियों पे आये

बादल से बातें करते।।


मुझे याद आज भी है

गजरों में तेरा सजना।

मेरा निष्ठुर बन के हटना 

तेरा छुप-छुप कर के रोना।।


पर आज दुःख है इसका

तेरा प्यार पा सका न।

न तो राम को ही पाया

न मुकाम पा सका मैं।।


अब जब हूँ मैं अकेला

मन-मन्दिर ढ़ह गया है।

विश्वास अब रहा न

हर कोई गिर गया है।।


तब दिखता नहीं है कोई

दूर तलक मुझको।

किस पर करूँ भरोसा

अपना बनाऊँ किसको।।

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तू भी कर यायावरी

खूब लिखी तूने हसरत, यार हँसने के लिए।

पर शरारत क्यों करेगा, कोई फँसने के लिए।।

वो जमाना अब नहीं, जब शायरों का जोर था।

दिल मचलता था समां तक, हुस्न का तब दौर था।।

अब अन्धेरा छा गया है, दिन में भी रात सा।

कुछ नहीं दिखता है अब, ईमान हो गया खाक सा।।

क्या हँसाऊं यार तुमको, बेदिलों के बीच में।

कैसे कलियों को खिलाऊं, बेबसी के बीच में।।

आइना है वक्त ही यह, खुद पे हँसने के लिए।

मत हँसो बेजा बनो, गम्भीर दुनियाँ के लिए।।

गर तुम्हें अच्छी लगे, मेरी मुकम्मल शायरी।

कुछ नया करने का प्रण ले, तू भी कर यायावरी।।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


फरियादी

मर चुका इंसान यह जो दिख रहा तस्वीर में। 

मुद्दतों के बाद आया आज है मेरे ख्वाब में।। 

जिंदादिल था यह यहाँ जब दोस्त भी हजार थें। 

पर ये मर कर जब से लौटा स्वप्न भी नाराज़ हैं।।

सो नहीं पाता कभी यह दिन में या रात में।

शून्य में कुछ ढूंढता है डूब कर दिन-रात ये।।

पर यहाँ क्या कर रहा है रूहों का संवादी बन।

पूर्वज़ों को न्याय क्यों दिलवा रहा फरियादी बन।। 

जिस्म से निकला था कल भी पर नहीं ऊपर गया।

वंशज़ों के तन में आकर फिर यहीं पर रुक गया।।

तब ही इसको याद है बीते दिनों की दास्तां। 

तब ही इस जीवन के लोगों से न रखता वास्ता।।

लाख कोशिश कर के भी कोई इसे न डिगा सका।

कारण है इसको है पता मरता नहीं कभी आत्मा।। 


🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

नये प्रीत का गीत

(09:11:2019 / 12:28 am) 

कोई शिक्वा करूं
तो किससे करूं? 
जब दर्द भी है मेरा 
दर्द दाता भी मेरा।। 
बस यही सोच कर
दर्द को मैंने पी ली।
पर नहीं दिख रहा
कोई सहारा मेरा।।
फिर ये कैसे कहूं? 
दर्द अपना ही है।
जिसने इसको दिया
वो भी अपना ही है।।
ये जो दर्द है मिला
मरने देता नहीं। 
दर्द की टीस से 
जीने देता नहीं।।
ऐसे में क्या करूँ? 
राह दिखता नहीं।
मौन कोने में छुप
दिल सिसकता है क्यूं?
जिसने दर्द दिया
उसको भुला न क्यों?
जो भी सपने था देखा
वो मिटता न क्यों?
अब तो ठाना है दिल से 
भुलाऊँगा सबको।
जो दिल का हो सच्चा
ढूँढ लाऊँगा उसको।। 
जो भी रिश्ते हैं झूठे 
क्यों न उसको भूलूं? 
क्यों न जख्मी दिल पे
मैं मलहम लगा लूं? 
क्यों न उदास दिल को
फिर से जवां बना लूं? 
क्यों दर्द सह रहा हूँ
क्यों खुद को मैं जलाऊं? 
क्यों नहीं प्रीत का फिर
मैं नये गीत गाऊं? 

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

मन की वीणा

मन की बतिया कोई न जाने

कही हुई बतिया भी न माने।

ऐसे में क्या करूं बता दे

मन की वीणा कोई बजा दे।। 

सागर के तल सा मैं स्थिर

पर लहरों सा मचल रहा हूँ।

पर ये लहर नहीं मैं क्यों कि

मैं अथाह अविचल सागर हूँ।। 

मैं लेखक हूँ मैं शायर हूँ

मोती मूँगों का गागर हूँ।

फिर भी दुनियाँ मुझे न चाहे

क्योंकि मैं कुम्भी नागर हूँ।। 

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

बेवफ़ा

देखा था तुम्हें जिस दिन मैने

समझा था कि तुम बड़ी भोली हो।

तुम हँसी तो हो, नादां भी कुछ 

मनमोहनी और हमजोली हो।

यह सोच के दिल मैं दे बैठा 

तेरे इश्क में पागल होकर मैं। 

पर अब यह सोच के रोता हूँ 

क्या देख के तुम से प्यार किया। 

तुम नादां हो इसको तुम में

मैंने पहले ही देखा था। 

पर जालिम हो और कातिल भी

इस को मैने नहीं समझा था। 

आखिर तुम क्यों मेरे दिल में बस

मन मोह लिया दिल जीत लिया। 

फिर क्या आखिर मजबूरी थी

यह दिल तूने यूं तोड़ दिया।

तुम्हें जहाँ भी रहना वहीं रहो

पर अब ऐसा कुछ मत करना।

वर्ना तेरे कारण नारी पर

फिर से कभी यकीं नहीं होगा।

नहीं इश्क करेंगे कोई कहीं

बर्बाद गुलिस्तां यह होगा।


🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀

जन्म दिन

ये जनम दिन मुबारक तुम्हें हो प्रिय! 

रोज़ दिल में जलाना खुशी के दीये।। 

गर मुकद्दर में मेरा न मिलना लिखा। 

भाव में शब्द बन कर ही आना प्रिय।।

शेर बनना तू मेरी या कविता मेरी।

तुझको गाकर ही खो जाऊँ तुझमे प्रिय।।

मैं हूँ शायर तुम्हारा तू कविता मेरी।

मेरी धड़कन में बस जाओ सरगम प्रिय।।



 फिर से भारत को रचें

घर में बच्चे हैं बिलखते

बस दो रोटी के लिए।

दूध के बदले भात का भी 

मार पीने के लिए।।

पर नहीं मिलता वह भी मुझको 

क्यों कि हम कंगाल हैं।

फिर भी नेता रोज़ है कहता

देश मालामाल है।।

सबकी जेबों में सलाना

आय ऊपर चढ़ रहा है।

उसका ही परिणाम है देखो 

पेट हमारा बढ़ रहा है।।

पर मुझको यह समझ न आता

क्या मैं देश का लाल नहीं? 

गर हूँ भारत वासी तो क्यों 

मेरे जेब में माल नहीं।।

क्यों नहीं दिखता है किसी को

मेरा सबसे बुरा हाल। 

कहने को सवर्ण हैं हम

पर हम हैं सबसे कंगाल।।


घर में जो भी धन थे मेरे

देश के हित में दे दिया।

पर नहीं अब है अन्न भी घर में

देश ने हक सब छीन लिया।। 

अब नहीं है जीने का भी

हक किसी इंसान को।

हर तरफ हैवान है दिखता

सुख मिलता बेईमान को।। 

अब हमारा हाल यही है

कहीं नहीं सम्मान है।

और नहीं कुछ धन बचा है

बस बचा ईमान है।।

देह तो है पर माँस बिना हम 

जीवित एक कंकाल हैं।

आँख धंस कर है समाया

भौं के नीचे माथ में।। 

गाल दोनों मिल रहा है

मुँह में के ताल में।

पेट ये लगता सिल गया है 

जैसे सूखे डाल में।।


फिर भी दर-दर ये मैं कहता

कोई मुझको काम दो।

पर नहीं कोई काम देता

कहता पहले दाम दो।।

जब नहीं कोई काम मिलता

फिर वहीं चल देता हूँ। 

भीख अगर कुछ मिल जाता तो

उससे जान बचाता हूँ।।

क्या यही हम सोच कर के

देश हित सब कुछ लुटाये।

जो भी लाये थे कमा कर

देश के हित के लिए लगायें।।

कितने दुःख को झेल कर के

देश को एक बनाये थें। 

गाँधी की बातों में आकर

धन सारा लुटाए थे।।

पर जिनको हमने ही बढ़ाया

उनसे ऐसा धोखा खाया।

कि है लगता ऐसा अब तो

देश ये अपना बना पराया।।


अब है भारत हाय कैसे 

अपना हम स्वीकार लें।

छिन गया घर-बार सारा

क्या गुलामी मान लें।। 

न रहा रहने को अब घर

न ही खेती की भूमि।

राह के फुटपाथ पर भी

कुछ जगह मिलता नहीं।।

गर कहीं हम गिर पड़े

तब भी नहीं मिलता सहारा।

क्या हमारे राज में था

ऐसा ही बिल्कुल नजारा।। 

मैं समझता हूँ नहीं

किसी राज में बिल्कुल नहीं।

बल्कि सदा रक्षा किये

जन हित में सब अर्पित किये।।

फिर भी हमारा हाल यह क्यों

अब भी हम संज्ञान लें। 

मिल के हम फिर जंग करें एक

फिर से भारत को रचें।।

- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास

 

नए अछूत🦜

हमको देखो हम सवर्ण हैं

भारत माँ के पूत हैं,

लेकिन दुःख है अब भारत में,

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


सारे नियम सभी कानूनोंऽ ने,

हमको ही मारा है;

भारत का निर्माता देखो,

अपने घर में हारा है। 

नहीं हमारे लिए नौकरी,

नहीं सीट विद्यालय में;

ना अपनी कोई सुनवाई,

संसद और न्यायालय में। 

हम भविष्य थे भारत माँ के,

आज बने हम भूत हैं;

बेहद दुःख है अब भारत में;

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


'दलित' महज़ आरोप लगा दे,

हमें जेल में जाना है;

हम-निर्दोष, नहीं हैं दोषी,

ये सबूत भी लाना है। 

हम जिनको सत्ता में लाये,

छुरा उन्हींने भोंका है,

काले कानूनों की भट्ठी,

में हम सब को झोंका है। 

किसको चुनें, किन्हें जितायें?

सारे ही यमदूत हैं;

बेहद दुःख है अब भारत में;

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


प्राण त्यागते हैं सीमा पर,

लड़ कर मरते हम ही हैं;

अपनी मेधा से भारत की,

सेवा करते हम ही हैं। 

हर सवर्ण इस भारत माँ का,

एक अनमोल नगीना है;

अपने तो बच्चे-बच्चे का,

छप्पन इंची सीना है। 

भस्म हमारी महाकाल से,

लिपटी हुई भभूत है;

लेकिन दुःख है अब भारत में,

हम सब 'नए अछूत' हैं। 


देकर खून पसीना अपना,

इस गुलशन को सींचा है;

डूबा देश रसातल में जब,

हमने बाहर खींचा है। 

हमने ही भारत भूमि में,

धर्म-ध्वजा लहराई है;

सोच हमारी नभ को चूमे

बातों में गहराई है। 

हम हैं त्यागी, हम बैरागी,

हम ही तो अवधूत हैं;

बेहद दुःख है अब भारत में,

हम सब 'नए अछूत' हैं।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


🏺विश्वास🏺

अडिग विश्वास जब होगा।

प्रभू का साथ तब होगा।। 

भले दुनियाँ तुम्हें छोड़े।

प्रभु तुमको न छोड़ेंगे।। 

यकीं हो गर नहीं तुमको।

तो देखो कर के तुम भी ये।। 

मगर यह तब ही होगा जब।

उन्हें तुम दिल से चाहोगे।।

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


🌺 बेघर का लॉक डाउन 🌺

रहने को कोई घर नहीं 

पर सारा जहाँ हमारा है।

पेट है खालीऽ वदन है नंगा

फिर भी मन मतवारा है।। 🇮🇷


प्रभु रखना नज़र उन पर,

जो महलों के दिवाने हैं।

सलामत रखना उनको तुम,

जो धंधों में सयाने हैं।। 🏠


तू मेरी छोड़ मैं क्या हूँ

मैं बेघर और अनाड़ी हूँ।

तू रखना ख्याल उनका ही

मैं उन सा नहीं खिलाड़ी हूँ।। 🎾


मेरा क्या मैं तो नंगा हूँ

बिमारी में भी चंगा हूँ।

भले ही मैं लगूं मैला 

मगर मन से मैं गंगा हूँ।। 😍


मैं तन्हां हूँ भले लेकिन 

मेरा मन साथ हरदम है।

अगर तन छिन गया तो भी

नहीं मुझको कोई गम है।।🛡️


है मन ही मेरा असली धन

ये जब तक साथ मेरे है।

नहीं मैं हार मानूंगा

तुम्हें हर बार चाहूँगा।


मगर तुमसे है एक विनती

जो मेरी कुछ नहीं सुनते

बस उनके दिल में तुम बस कर

....... *......... *......... *........ 


है जिनको ना कहीं कोई घर

जो अपनों के सताये हैं।

था जिनसे छिन चुका दौलत

क्या उनका हक दिला दोगे? 🐍


अगर तुम कर सको ऐसा

तो तुमको माथे पे रख लूं।

फिर अपनेऽ घर में रह कर के

खुद को लॉक डाउन कर लूं।  🏫🔐


मगर मैं जानता हूँ ये

यहाँ कुछ ऐसा न होगा।

जो कहते हम तुम्हारे हैं

हमेशा देंगे वे धोखा।। 😢😩


https://www.facebook.com/groups/1431646760273259/permalink/2734235306681058/

🌺🌻🌺🌹🌺🌻🌺🌹🌺🌻🌺


ठाकरे सरकार

जिहादी सरकार में बने

कानून का परिणाम है,

कि देश प्रेमी और सैनिक

इस देश में बदनाम है।

जो हैं दुश्मन देश के वे

सीना ताने चल रहे,

पर जो सैनिक देश के थे,

देश में ही डर रहे।

चल रही है ऐसी आँधी

कि हवा भी मौन है,

तख्त से चिपका मराठी

फिर भी शासन गौण है। 

रक्त की बून्दें बरसती

आये दिन बाजार में,

क्या पता आगे क्या होगा

ठाकरे सरकार में।

डर रहे क्यों वीर जो हैं 

शासकों के पाप से,

देश पीछे जा रहा क्यों

पूछ अपने आप से। 😢


- प्रसेनजित सिंह उर्फ स्वामी सत्यानन्द दास

 (उदासी सन्त, साहित्यकार एवं समाजसेवी)

🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀🥀


कौशिक कृत महर्षि भृगु साठिका


 । । महर्षि भृगु साठिका ।।

जिनके सुमिरन से मिटै, सकल कलुष अज्ञान।

सो गणेश शारद सहित, करहु मोर कल्यान।।

वन्दौं सबके चरण रज, परम्परा गुरुदेव।

महामना, सर्वेश्वरा, महाकाल मुनिदेव। ।

बलिश्वर पद वन्दिकर, मुनि श्रीराम उर धारि।

वरनौ ऋषि भृगुनाथ यश, करतल गत फल चारि। ।

🏺🌺🌹🌺🏺🌺🌹🌺🏺🌺🌹🌺🏺

जय भृगुनाथ योग बल आगर।
सकल सिद्धिदायक सुख सागर।। 1।।

विश्व सुमंगल नर तनुधारी।
शुचि गंग तट विपिन विहारी।।2।।

भृगुक्षेत्र सुरसरि के तीरा।
बलिया जनपद अति गम्भीरा। ।3।।

सिद्ध तपोधन दर्दर स्वामी।
मन-वच-क्रम गुरु पद अनुगामी। ।4।।

तेहि समीप भृग्वाश्रम धामा।
भृगुनाथ है पूरन कामा। । 5।।

स्वर्ग धाम निकट अति भाई।
एक नगरिका सुषा सुहाई। । 6।।

ऋषि मरीचि से उद्गम भाई।
यही महॅ कश्यप वंश सुहाई।।7।।

ता कुल भयऊ प्रचेता नेमी।
होय विनम्र संत सुर सेवी।।8।।

तिनकी भार्या वीरणी रानी।
गाथा वेद-पुरान बखानी। ।9।।

तिनके सदन युगल सुत होई।
जनम-जनम के अघ सब खोई। ।10।।

भृगु अंगिरा है दोउ नामा।
तेज प्रताप अलौकिक धामा।। 11।।

तरुण अवस्था प्रविसति भयऊ।
गुरु सेवा में मन दोउ लयऊ। ।12।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागो।
आत्मज्ञान होवन है लागो।।13।।

परम वीतराग ब्रह्मचारी।
मातु समान लखै पर नारी।।14।।

कंचन को मिट्टी करि जाना।
समदर्शी तुम्ह ज्ञान निधाना।।15।।

दैत्यराज हिरण्य की कन्या।
कोमल गात नाम था दिव्या।।16।।

भृगु-दिव्या की हुई सगाई।
ब्रह्मा-वीरणी मन हरसाई। ।17।।

दानव राज पुलोमा भी आये।
निज सुता पौलमी को लाये।।18।।

सिरजनहार कृपा अब कीजै।
भृगु-पौलमी ब्याह कर लीजै।।19।।

ब्रह्मलोक में खुशियां छाई।
तीनों लोक बजी शहनाई।।20।।

दिव्या-भृगु के सुत दो होई।
त्वष्टा, शुक्र नाम कर जोई।।21।।

भृगु-पौलमी कर युगल प्रमाना।
च्यवन, ऋचीक है जिनके नामा।।22।।

काल कराल समय नियराई।
देव-दैत्य मॅह भई लड़ाई। ।23।।

ब्रह्मानुज विष्णु कर कामा।
देव गणों का करें कल्याना।। 24।।

भृगु भार्या दिव्या गई मारी।
चारु दिशा फैली अँधियारी।।25।।

सुषा छोड़ि मंदराचल आये।
ऋषिन जुटायू से यज्ञ कराये।।26।।

ऋषियन मॅह चिन्ता यह छाई।
कवन बड़ा देवन मॅह भाई।। 27।।

ऋषिन-मुनिन मन जागी इच्छा।
कहे भृगु के करेें परीक्षा।।28।।

गये पितृलोक ब्रह्मा नन्दन।
जहाँ विराज रहे चतुरानन।।29।।

ऋषि-मुनि कारन देव सुखारी।
तिनके कोऊ नाही पुछारी।।30।।

शाप दियो पितु को भृगुनाथा।
ऋषि-मुनिजन का ऊँचा माथा।।31।।

ब्रह्म लोक महिमा घटि जाही।
ब्रह्मा पूज्य होही अब नाही।।32।।

गये शिवलोक भृगु आचारी।
जहाँ विराजत है त्रिपुरारी।।33।।

रुद्रगणों ने दिया भगाई।
भृगु मुनि तब गये रिसिआई।। 34।।

शिव को घोर तामसी माना।
जिनसे हो  सबके कल्याना।।35।।

कुपित भयउ कैलाश विहारी।
रुद्रगणों को तुरत निकारी।।36।।

कर जोरे विनती सब कीन्हा।
मन मुसुकाई आपु चल दीन्हा।।37।।

शिवलोक उत्तर दिशि भाई।
विष्णु लोक अति दिव्य सुहाई।।38।।

क्षीर सागर में करत विहारा।
लक्ष्मी संग जग पालनहारा।।39।।

लीला देखि मुनि गए रिसियाई।
कैसे जगत चले रे भाई।।40।।

विष्णु वक्ष पर कीन्ह प्रहारा।
तीनहूं लोक मचे हहकारा।।41।।

विष्णु ने तब पद गह लीन्हा।
कहा नाथ आप भल कीन्हा।।42।।

आत्म स्वरुप विज्ञ पहचाना।
महिमामय विष्णु को माना।।43।।

दण्डाचार्य मरीचि मुनि आये।
भृगु मुनि को वो दण्ड सुनाये।।44।।

तुम्हने कियो त्रिदेव अपमाना।
नहि कल्यान काल नियराना।।45।।

पाप विमोचन एक अधारा।
विमुक्त भूमि गंगा की धारा।।46।।

हाथ जोरि विनती मुनि कीन्हा।
विमुक्त भूमि का देहू चीन्हा।।47।।

मुदित मरिचि बोले मुसकाई।
तीरथ भ्रमन करौं तुम्ह सांई।।48।।

जहाँ गिरे मृगछाल तुम्हारी।
समझौ भूमि पाप से तारी।।49।।

भ्रमनत भृगुमुनि बलिया आये।
सुरसरि तट पर धूनि रमाये।।50।।

कटि से भू पर गिरी मृगछाला।
भुज अजान बाल घुँघराला।51।।

करि हरि ध्यान प्रेम रस पागे।
विष्णु नाम जप करन लागे।।52।।

सतयुग के वो दिन थे न्यारे।
दर्दर चेला भृगु के प्यारे।।53।।

दर्दर से सरयू मँगवाये।
यहाँ भृगुमुनि यज्ञ कराये।।54।

गंगा-सरयू संगम अविनाशी।
संगम कार्तिक पूरनमासी।।55।।

जुटे करोड़ो देव देह धारी।
अचरज करन लगे नर-नारी।।56।।

जय-जय भृगुमुनि दीन दयाला।
दया सुधा बरसेहूं सब काला।।57।।

सब संकट पल माहि बिलावै।
जे धरि ध्यान हृदय गुन गावैं।।58।।

सब संकल्प सिद्ध हो ताके।
जो जन चरण-शरण गह आके।।59।।

परम दयामय हृदय तुम्हारो।
शरणागत को शीघ्र उबारो।।60।।

आरत भक्तन के हित भाई।
कौशिकेय यह चरित बनाई।।61।। 

🏺🌷🌺🌷🏺🌷🌺🌷🏺🌷🌺🌷🏺

भृगु संहिता रची करि, भक्तन को सुख दीन्ह।

दर्दर को आशीष दे, आपु गमन तब कीन्ह।।

पावन संगम तट मह, कीन्ह देह का त्याग।

माई बन्दी के भक्तन को, देहू अमित वैराग।।

दियो समाधि अवशेष की, भृग्वाश्रम निज धाम।

कर दर्शन भृगु धाम के, सिद्व होय सब काम।

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वैदिक और पौराणिक कथाओं में वर्णित सर्वमान्य पात्र महर्षि भृगु का जन्म २.५ लाख ईसा पूर्व ब्रह्मलोक-सुषा नगर (सम्भवतः ओमान या वर्तमान ईरान) में हुआ था। ये आदि ब्रह्मा के पुत्र थे | ये अपने माता-पिता के सहोदर दो भाईयों में छोटे भाई थे। इनके बड़े भाई अंगिरा ऋषि थे। जिनके पुत्र बृहस्पति जी देवगणों के गुरु और कच के पिता थे। इन्होंने हिमालय के भृृगुप्रश्रवण नामक स्थान पर विश्व का पहला ज्योतिषिय ग्रन्थ "भृगु संहिता" की रचना किया थाा। कई जगहों पर भार्गव संहिता के नाम से भी विख्यात इस ग्रन्थ के लोकार्पण तथा गंगा और सरयू नदि के संगम के अवसर पर जीवनदायिनी गंगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ऋषि ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में ददरी मेला प्रारम्भ किया था। 


श्री दिव्या भृगु मन्दिर


महर्षि भृगु :
---------------
महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे आपके दो पुत्रों क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्मकाण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में इन्हें आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में आपको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी परम्परागत शिल्प दक्षता से ये भी जगत में विख्यात हुए।

महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने खम्भात की खाड़ी में स्थित भड़ौंच (गुजरात) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। राजा शर्याति को पुत्र नहीं था, इसके कारण भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिणी क्षेत्र में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ और भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। कच्छ की खाड़ी इसी भृगुुकच्छ के पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित है तथा भारतीय राज्य गुजरात में स्थित भड़ौच नामक जगह पौराणिक नगर भृगुकच्छ का ही अपभ्रंश है। इसी भड़ौच में नर्मदा नदी के तट पर प्राचीन भृगु मन्दिर बना हुआ है।

महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह मघवा और महेन्द्र के नाम से विख्यात विश्वेन्द्र कौशिक गाधि की एकलौती पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में देकर किया था। इससे भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण में स्थित राजा गाधि के ही राज्य में स्थित गाधिपुरी नामक क्षेत्र (उत्तर प्रदेश के वर्तमान बागी बलिया जिला) में आ गये थे।

महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों में आक्रोश पनप रहा था। जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक ब्रह्माजी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था। इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में  विष्णु जी ने उनकी पहली पत्नी हिरण्ययकशिपु नन्दिनी (पुत्री) देवी दिव्या को मार डाला। जिससे क्रोधित होकर महर्षि भृगु ने श्री विष्णु जी से सम्बन्ध खत्म कर लिये। भृगु ऋषि के द्वारा विष्णु को अपमानित कर के त्याग देने की घटना ही ग्रन्थों में भृगु ऋषि के द्वारा विष्णु को लात मारना कहलाता है। 

इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के छोटे भाई और विष्णु जी के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिणी भाग में जाकर रहें। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे। परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर (पर्शिया, ईरान) से अपनी दूसरी पत्नी पौलोमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान बलिया और गाजीपुर का इलाका) में आ गये।

महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने का दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में भी मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण और श्रीमद्भागवत के विभिन्न खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था। जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का भी जन्म हुआ था। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योगशक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी। वह दैत्यों की सेना के मृत सैनिकों को अपने योगबल से जीवित कर देती थी। जिससे नाराज होकर श्रीहरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया था। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु भगवान ने विष्णु को शाप देते हुए कहा था कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर के सुमेरु (पर्वतराज हिमाचल) नन्दिनी गंगा के तट पर स्थित क्षेत्र में चले गए और वहीं पर तमसा देवी को जन्म दिये। अर्थात तमसा नदी की सृष्टि किये।

पद्म पुराण के उपसंहार खण्ड की कथा के अनुसार मन्दराचल पर्वत हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है? देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया था।

त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान शंकर के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिमी भाग में स्थित कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुंचे, उस समय भगवान शंकर अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान शंकर से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान शंकर को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया।

यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक (सुषानगर, पर्शिया, ईरान) में ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।

भगवान श्रीहरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी के पास स्थित बन्दी-रमा नामक स्थान पर स्थित पहाड़ी (शेषनाग) पर अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी देवी के साथ विहार कर रहे थे। उनसे मिलने की इच्छा जताने पर विष्णु के सेवकों ने बताया कि अभी वे सो रहे हैं। इस पर वे विष्णलि जी के जागने का इन्तजार करने लगे। लेकिन काफ़ी समय तक इन्तजार करने पर भी जब विष्णु जी ने उनकी ओर नहीं देखा तो महर्षि भृगुजी को लगा कि हमें आया हुआ देख कर ही विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। इस अपमान से उन्हें अपनी पहली पत्नी हैरण्य दिव्या देवी की विष्णु के द्वारा हत्या करने की घटना याद आ गई। 

अपने दामाद के द्वारा किये जा रहे तिरस्कार से क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने अपने दाहिने पैर का आघात श्री विष्णु जी की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस आचरण पर उनकी पुत्री लक्ष्मी जो श्रीहरि के चरण दबा रही थी कुपित हो उठी। कहते हैं कि इस घटना से क्षुब्ध हुए श्रीविष्णु जी ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और शापित होने के भय से अपनी भूल के लिए माफ़ी माँगते हुए कहा कि हे भगवन्! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। इससे सन्तहृदयी महर्षि भृगु अपने व्यवहार से लज्जित तो हुए ही उनका क्रोध भी शान्त हो गया। अपने दामाद में हुए इस हृदय परिवर्तन से प्रसन्न होकर उन्होंने श्रीहरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ और सतोगुणी घोषित कर दिया।

ब्रह्मर्षि भृगु जी के द्वारा लिए गए त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी हुई है। वहीं वेदों को विभाजित कर के पुराणों की रचना करने वालों ने निर्दोष भृगु ऋषि की छवि को खराब करने के लिए जानबुझ कर कुछ ऐसे आख्यान गढ़ दिये जिससे भृगुवंशियों को नीचा दिखाया जा सके। इसमें लेखकों की बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी हुई थी। अपने उपेक्षा करने वाले को भी क्षमा कर देने वाले भृगु की छवि खराब करने के लिए इनकी लोकप्रियता से जलने वालों ने एक कहावत रच दी - 

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।

का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात।।

इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, और असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्रगणों और शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में आदित्यों के नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे। उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्य-अत्रि, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ में च्यवन तथा गाधिपुरी (भारत के उत्तर प्रदेश में स्थित गाजीपुर-बलिया का क्षेत्र) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा से हिमालय के दक्षिणी भाग में रहने वाले भृगुवंशियों की सहायता से श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लिया जाने लगा। भार्गवों की सहायता और आशिर्वाद से हिमालय पार के सूर्य, मङ्गल और शनि आदि देवों को प्रभुत्व और सम्मान (मान्यता) दिया जाने लगा।

पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने पश्चाताप करने के लिए अनवरत यात्रा (उदासीन यात्रा) करने की सजा सुनाते हुए बाँस की एक छड़ी देकर यह निर्देश दिया कि जिस धरा पर इस बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े, उसी धरा को सबसे पवित्र मान कर प्रवास करेंगे और वहीं पर विष्णु सहस्त्रनाम का जप करेंगे तब ही आप अपने पूर्व पद पर पुनः आसीन होंगे और आपके इस पाप का मोचन होगा। 

अपने धाम को त्याग कर अनिश्चित और अज्ञात धाम की तलाश में महर्षि भृगु भगवान के द्वारा आरम्भ की गयी यही यात्रा उदासीन यात्रा कहलाया। त्रेता युग में प्रभु श्री रामचन्द्र जी को भी उदासीन यात्रा के लिए जाना पड़ा था। वनवास के लिए अयोध्या को छोड़ते समय अनिश्चित गंतव्य की ओर प्रस्थान करने के समय की स्थिति का उल्लेख करते हुए संत तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है "तापस वेश सुवेश उदासी, चौदह वरष राम वनवासी।।" अर्थात् उदासी तपस्वी की तरह सुन्दर वेश धारण कर के प्रभु श्री रामचन्द्र जी को चौदह वर्षों तक वन में ही वास करना होगा। उदासी पन्थ के अनुयायी अपने घर, परिवार और समाज से कटे होने पर भी धर्म का त्याग नहीं करने वाले लोग होते हैं जो। भूमिहीन और बेघर होकर अपनी मूल भूमि से विस्थापित होकर भी धर्म का परित्याग नहीं करने वाले लोग होते हैं। अतः ऐसे लोग सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोगों के लिए पूजनीय होते हैं। 

उदासीन होने के लिए मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उत्तर प्रदेश) के गंगा तट पर पहुँचते ही उनकी छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। इससे वे समझ गए कि अब उनकी यात्रा रुकने वाली है। संयोगवश एक दिन गङ्गा नदी के किनारे स्थित वन में विचरण करने के दौरान उन्हें जोरों की प्यास लगी। नदी के जल से प्यास बुझा कर जैसे ही वहाँ से प्रस्थान करना चाहे कमर में बँधी हुई उनकी मृगछाला ढ़िली होकर भूमि पर गिर गई। इससे वे समझ गए कि इसी जगह पर हमें प्रवास करना है। फिर वे गङ्गा नदी के उस क्षेत्र को अविमुक्त क्षेत्र समझ कर प्रवास करने के लिए कुटिया बनायें और तपस्या में लीन हो गये। कालान्तर में यही क्षेत्र महर्षि भृगु के नाम से भृगुक्षेत्र कहलाया। वर्तमान में इसी भूमि पर स्थित बागी बलिया (उत्तर प्रदेश, भारत) नामक नगर बस गया, जो स्वतंत्रता संग्राम में प्रथम आजाद जिला के नाम से जाना जाता है।

महर्षि भृगु के जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक अधूरी और अपूर्ण जानकारी के कारण पाखण्डी और आडम्बरवादी न बनें, बल्कि सत्य को स्वीकार कर के उदासी धर्म के मार्ग पर चलते हुए स्वविवेक का प्रयोग कर सके। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए पौराणिक कथाओं के लेखकों ने उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किया है, जिसके कारण भगवान भृगु जैसे लोगों के लिए भी शिव पुराण और हरिवंश पुराण में अपमान जनक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके कारण भृगुवंशियों को भी कभी-कभी अपमानित होना पड़ जाता है। इसके कारण कभी-कभी तो ऐसी स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है जो संग्राम और महासंग्राम का भी कारण बन जाता है। वृत्रासुर के द्वारा कौशिकों के देश में आने वाले जल प्रवाह के मार्ग को अवरुद्ध करने के कारण जब उनके राज्य की नदियाँ सूखने लगी, पेड़-पौधे सूख गए, खेतीबाड़ी बन्द हो गई, उनके निवासी अपनी भूमि छोड़ कर अन्य देशों की ओर पलायन करने लगे तब यज्ञ के द्वारा वर्षा करवाने का निर्णय लेकर जब राजा विश्वामित्र भगवान तैयारियों में लग गए तब वृत्रासुर ने उनके द्वारा यज्ञ कार्य के लिए लाये हुए सभी गायों का हरण कर लिया था। इससे पञ्चगव्य आदि के अभाव में खण्डित हो रहे यज्ञ की सुरक्षा के लिए जब कौशिक विश्वामित्र जी ने वशिष्ठ ऋषि से सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनु गाय माँगने गये थे। लेकिन उनके पूर्वज़ भृगु के प्रति अपमान जनक बोल बोलते हुए किसी भी ब्राह्मण को उनके यज्ञ में सम्मिलित नहीं होने देने की धमकी देने से आक्रोशित होकर कौशिक विश्वामित्र भगवान ने वशिष्ठ ऋषि की गाय को जबरन ले जाने लगे थे। इसके कारण वशिष्ठ के सभी पुत्रों और शिष्यों ने अपने आश्रम में अतिथि के रूप में आये हुए भृगुवंशी राजा कौशिक विश्वामित्र भगवान पर आक्रमण करके दिया था। शिकार खेलने के दौरान अपने सैनिकों से भटक कर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में अतिथि के रूप में आये हुए राजा कौशिक विश्वामित्र भगवान के साथ किये गये दुर्व्यवहार के कारण हुए उस संघर्ष का दोषी वशिष्ठ थे, इसके बावजूद उनके शिष्यों ने कथा लिखते समय सारा दोषारोपण राजा विश्वामित्र जी पर थोप दिया था। सिर्फ़ इतना ही नहीं वशिष्ठ ने छल पूर्वक कौशिक विश्वामित्र भगवान के सौ पुत्रों की हत्या भी कर दी थी। जिसका बदला लेने के लिए राज-पाट त्याग कर वे तपस्वी बन गये थे। और तपोबल से प्राप्त दिव्य शक्तियों के आगे वशिष्ठ को झुकने के लिए विवश कर दिये थे। 

महर्षि भृगु ने गङ्गा नदी के तट पर स्थित मुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला, उत्तर प्रदेश) में आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी असुरों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य और सुसंस्कृत बनानें का कार्य महर्षि भृगु और उनके बाद शुक्राचार्य जी के द्वारा किया गया था। कश्यप ऋषि की बड़ी पत्नी दिति देवी से जन्में दैत्यों, दनु देवी से जन्में दानवों, रक्षिका देवी से जन्में राक्षसों सहित अन्य असूरों के विकास के कार्य में मदद करने से नाराज़ कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति देवी के पुत्रों के द्वारा विरोध करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं था। लेकिन दक्षिणा लोभी वशिष्ठों ने सदैव भोग-विलास में लिप्त रहने वाले आदित्यों के अधर्म को वीरोचित कर्म कह कर खुल कर प्रशंसा किया तो सदैव धर्म रक्षार्थ दान, दया और तप में लीन रहने वाले असूरों के प्रति अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करते हुए दानवेन्द्र बलि जैसे धर्मात्मा को भी अधर्मी कह कर मान मर्दन का ही काम किया है। असूरों की बेटियों को बन्दी बना कर सदैव भोग-विलास में लिप्त रहने वाले इन्द्र, मित्र, वरुण और विष्णु की कथाओं से ही देवों का व्यक्तित्व पता चलता है। राक्षसेन्द्र रावण ने अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए भगवती सीता मइया का सिर्फ़ हरण किया था, लेकिन विष्णु ने तुलसी मइया के साथ जो किया था, क्या वह उचित? इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ जो किया था, क्या वह सही था? श्रीकृष्ण ने निर्दोष बाणासुर के सहस्त्र भाईयों का वध करके उनकी विधवा पत्नियों को द्वारका की नगर वधु बना कर क्या धर्म का काम किये थे?... बिल्कुल नहीं। इसके बावजूद उन अधर्मियों की सैकड़ों-हजारों वर्षों के बाद भी पूजा-पाठ और असली धर्माधिकारियों का विभिन्न पर्व-त्योहार के अवसर पर अपमान करने की प्रथा चला कर असुरों के वंशज़ों के हृदय पर कुठाराघात करना कैसे धर्म है? जिस तरह कश्यप भगवान की पत्नी अदिति देवी से जन्में आदित्य गण कच्छवाहा हैं, उसी तरह कश्यप ऋषि की ही अन्य पत्नियों से जन्में लोग भी कच्छवाहा ही हैं। लेकिन कच्छवाहा सम्मेलनों में सभी कच्छवाहों को आमंत्रित करने के बाद आदित्यों के वंशज़ों के द्वारा दिती और दनु आदि अन्य माताओं से जन्में कच्छवाहों के लिए बोले गये अपमान जनक शब्दों के कारण जब आज तक कच्छवाहा वंश के लोग ही एकजुट नहीं हो सके हैं तो अन्य लोगों के वंशज़ों को एकजुट करने की परिकल्पना कैसे साकार हो सकता है? विश्व बन्धुतव की विचारधारा पर चल कर ही इस स्वप्न को साकार किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए वशिष्ठ जैसे लोगों को सकारात्मक सोच को विकसित करने वाले साहित्य लिखने चाहिए। इतिहास लेखन का कार्य करने वाले लोगों को भी पक्षपात पूर्ण मनगढंत बातें लिखने के बजाए अच्छी हो या बूरी सभी पहलुओं पर विचार करते हुए सच्ची खबरें लिखनी चाहिए। ताकि भावी पीढ़ी के लोगों को ऐतिहासिक घटनाओं से प्रेरणा मिल सके। 

भृगु संहिता
==================== संपादन जारी
महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में जानते है। इस नाम से अनेक पुस्तके आज भी साहित्य विक्रेताओं के यहाॅ बिकती हुई दिखाई देती है।

महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था। अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्ष्ेत्र में गंगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था। आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए  उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद  और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से र्पूर्व की गई थी।

महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र  शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।

महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को  कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को  दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, तब कुछ विद्वानों ने इन ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया। 

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