हमको देखो हम सवर्ण हैं
भारत माँ के पूत हैं,
लेकिन दुःख है अब भारत में,
हम सब 'नए
अछूत' हैं।
सारे नियम सभी कानूनों
ने हमको ही मारा है,
भारत का निर्माता देखो,
अपने
घर में हारा है।
नहीं हमारे लिए नौकरी,
नहीं सीट विद्यालय में।
ना अपनी कोई सुनवाई,
संसद या न्यायालय में।
हम भविष्य थे भारत माँ के,
आज बने हम भूत हैं।
बेहद दुःख है
अब भारत में
हम सब 'नए अछूत' हैं।
दलित महज़ आरोप लगा दे,
हमें जेल में जाना है।
हम-निर्दोष! नहीं हैं दोषी,
यह सबूत भी लाना है।
हम जिनको सत्ता में लाये,
छुरा
उन्हीं ने भोंका है।
काले कानूनों की भट्ठी,
में हम सब को झोंका है।
किनको चुनें,
किन्हें हरायें?
सारे पाप के दूत हैं।
बेहद दुःख है अब भारत में
हम सब 'नए अछूत'
हैं।
प्राण त्यागते हैं सीमा पर,
लड़ कर मरते हम ही हैं।
अपनी मेधा से भारत की,
सेवा
करते हम ही हैं।
हर सवर्ण इस भारत माँ का,
एक अनमोल नगीना है।
इसके हर बच्चे-बच्चे
का,
छप्पन इंची सीना है।
भस्म हमारी शिवशंकर से,
लिपटी हुई भभूत है।
लेकिन दुःख है
अब भारत में,
हम सब 'नए अछूत' हैं।
देकर खून पसीना अपना,
इस गुलशन को सींचा है।
डूबा देश रसातल में जब,
हमने बाहर खींचा है।
हमने ही भारत भूमि में,
धर्म-ध्वजा
लहराई है।
सोच हमारी नभ को चूमे
बातों में गहराई है।
हम हैं त्यागी, हम बैरागी,
हम
ही तो अवधूत हैं।
बेहद दुःख है अब भारत में,
हम सब 'नए अछूत' है।
- कविता शीर्षक
#सवर्ण_अछूत नामक यह रचना उदासी सन्त, कवि और समाजसेवी प्रसेनजित सिंह कौशिक उर्फ़
स्वामी सत्यानन्द के द्वारा स्वरचित मौलिक रचना है तथा उनकी कविता संग्रह "मेरा मन
यायावर" से उद्धृत है।  राष्ट्रीय एकता तथा सामाजिक समरसता में बाधक बन रहे जाति,
धर्म और लिंग आधारित आरक्षण के बजाए आर्थिक और सामाजिक स्थिति के आधार पर आरक्षण के
कानून बनवाने के लिए इच्छुक लोगों से आग्रह है कि जात-पात आधारित वर्तमान क़ानूनों
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