गुरुवार, 21 जुलाई 2022

हिन्दी की दुर्दशा के कारण और समाधान


कब तक होता रहेगा हिन्दीभाषी लेखकों, अनुवादकों और प्रूफ़रीडर्स से बन्धुआगिरी? 

किस्सा Hindi और English के मिश्रित भाषा "Hinglish" के शुरुआत की


सरकारी उदासीनता के कारण हिन्दी लेखकों को दिहाड़ी करने वाले अशिक्षित मजदूरों से भी कम दिया जाता है पारिश्रमिक

सृजनात्मक लेखन के कार्य आसान नहीं हैैं मगर लेखकों के सहज और स्वभाविक उत्पाद होने के कारण उन्हें इसके लिए उतना मशक्कत नहीं करना पड़ता है जितना उसे प्रकाशित करने योग्य बनाने वाले प्रूफ़रीडर्स और अनुवादको को। दूसरे लेखकों की भावना को समझते हुए उसी तरह के भाव प्रकट करने वाले एक-एक शब्द का दूसरे भाषा में अनुवाद करना कठिन कार्य है। इसके लिए वाकई में हिन्दी भाषा के प्रूफ़रीडर्स और अनुवादकों को जो पारिश्रमिक मिल रहा है वह अपर्याप्त तो है ही हम हिन्दीभाषियों के लिए शर्मनाक भी है। 

मैं अनुवादक (ट्राँसलेटर) तो नहीं हूँ, मगर हिन्दी भाषा का लेखक और प्रूफ़रीडर जरूर हूँ। ट्राँसलेटर की तरह ही प्रूफ़रीडिंग का काम भी कठिन मानसिक परिश्रम करने वाला है। कभी-कभी तो यह इतना ऊबाऊ हो जाता है कि अनावश्यक शब्दों और वाक्यांशों को हटाने के कारण अपनी बेइज्जती समझने वाले लेखकों और सम्पादकों के दबाव के कारण अनावश्यक शब्दों और वाक्यांशों को कहां से उठाकर कहां सेट करना है इसका निर्णय करना प्रूफ़रीडिंग के कार्य करने वाले लोगों के लिए मुश्किल हो जाता है। इसके कारण जिस तरह के श्रम प्रूफ़रीडिंग करने वाले लोगों को करना पड़ता है उसके लायक पारिश्रमिक नहीं मिलने से अधिकांश लोग अपने कार्य में जानबूझ कर लापरवाही बरतने लगते हैं। ऐसा हिन्दी भाषा की अच्छी समझ नहीं रखने वाले उन हिन्दीभाषियों की जिद के कारण हो रहा है जो अन्य विषयों की बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर खुद को हिन्दी भाषा के भी विद्वान समझने लगते हैं। ऐसे ही विद्वानों की सूची में हैं बिहार के पटना जिला में स्थित Good Man Publications के मालिक प्रो. आर के सिन्हा। 

प्रो. आर के सिन्हा बिहार यूनिवर्सिटी में इंग्लिश से एम.ए. करने के बाद मेरे गाँव के बगल में स्थित ज्योति कुंवर महाविद्यालय नामक ऐसे कॉलेज में प्रोफेसर बन गये जो साल में सिर्फ़ दस दिन ही खुलते हैं। बाकि समय में बेतहाशा कमाई करने के लिए इन्होंने स्वलिखित इंग्लिश ग्रामर एण्ड ट्रान्सलेशन के कई किताब की मार्केटिंग करने के लिए अपना प्रेस भी खोल लिए थे। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन इन्होंने हद तब पार कर दिया जब हिन्दी-इंग्लिश दोनों भाषाओं में लिखे गये अपने पुस्तकों में हिन्दी व्याकरण के सम्बन्ध में गलत जानकारी देने लगे। इन्होंने अपने पुस्तकों के द्वारा हिन्दी व्याकरण की बखिया उधेड़ने का काम 1996 ईस्वी में प्रकाशित अपनी पुस्तक "Oxford Junior English TranslationOxford Junior English GrammarOxford Basic English Translation और Oxford Basic English Grammar" से ही कर दिया था। 

संयोगवश मुझे उनके प्रेस में प्रूफ़रीडर के रूप में काम करने का अवसर मिला। लेकिन मेरी नज़र जैसे ही बिहार में सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली व्याकरण की उस पुस्तक में भरे हुए हिन्दी व्याकरण से सम्बन्धित अशुद्धियों और गलत जानकारी पर पड़ा, मैंने ईमानदारी पूर्वक प्रूफ़रीडिंग कर के कम्पोजर से मूल प्रति दिखाने का आग्रह किया था। लेकिन उसका जवाब सुनकर मुझे तब आश्चर्य हुआ जब उसने मुझे यह नसीहत देते हुए कहा कि मैं आपकी बातों से सहमत हूँ, लेकिन आपको अपनी नौकरी बचानी है तो प्रोफेसर साहब के लिखे हुए वाक्यांशों में काट-छांट या फेरबदल न करें। इससे उनके स्क्रिप्ट के अलावा कोई अन्य अशुद्धि दिखे तो सिर्फ़ उसे ही मार्क करें। कम्पोजर के समझाने के बाद भी मैने दिल की बात Good Man (P & T) के प्रोपराइटर और उसके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के लेखक प्रो. आर. के. सिन्हा से कह दिया था। लेकिन उनका जवाब सुनते ही मैं समझ गया था कि अपने भावों और विचारों को हिन्दी भाषा में शुद्ध-शुद्ध लिखने, पढ़ने और बोलने की शिक्षा देने वाले शास्त्र के खिलाफ़ आधुनिक शिक्षा के नाम पर जो दुष्प्रचार और साजिश चल रहा है उसके खिलाफ़ हिन्दीभाषी लेखकों और समाजसेवियों को जगाना होगा। फिर क्या था मैंने वहां से इस्तीफा दिया और हिन्दी लेखकों भुवनेश्वर गुरमैता और नामवर सिंह को चिट्ठी लिख दिया। लेकिन परिणाम वही हुआ - "ढाक के तीन पात"। 

हिन्दीभाषी लेखकों और पत्रकारों के द्वारा हिन्दी के वाक्य के अन्त में पूर्ण विराम के चिन्ह "।" की जगह इंग्लिश में इस्तेमाल होने वाले फूल स्टॉप के चिन्ह "." का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जाने लगा। जो प्रो. आर. के. सिन्हा के द्वारा एक प्रयोग के तौर पर 1996 ईस्वी में शुरू किये गये Hindi और English के मिश्रित भाषा "Hinglish" की शुरुआत थी। 

आर. के. सिन्हा जैसे लोगों के पदचिन्हों पर चलने वाले हिन्दीभाषी लोगों के कारण ही आज हिन्दी भाषा के लेखकों और साहित्यकारों को वह सम्मान नहीं मिल रहा है जो हिन्दीभाषी लोगों के देश में इंग्लिश बोलने वाले लोगों को मिलता है। ऐसा सिर्फ इसी देश में है, जहाँ की राष्ट्रभाषा का दर्जा हिन्दी को मिलने के बाद भी खुद सरकारी एजेंसियां ही इंग्लिश में काम करने में गर्व महसुस करती है। ऐसे लोगों के कारण ही क्रियेटिव राइटिंग, प्रूफ़रीडिंग और ट्रांसलेशन के कार्य करने वाले हिन्दीभाषी लोगों को अन्य भाषा में कार्य करने वाले लोगों की अपेक्षा कम पारिश्रमिक दिया जाता है। 

हिन्दी भाषा के प्रूफ़रीडर और ट्रांसलेटर को कम से कम 50 पैसे/शब्द पारिश्रमिक देना चाहिए। यानी प्रति 1000 शब्दों के लिए न्यूनतम 500/- रुपये पारिश्रमिक तो देना ही चाहिए। यही शुल्क हिन्दीभाषी अनुवादकों को भी दिया जाना चाहिए। लेकिन मिलता है 300/- रुपये भी नहीं। इसके लिए देश और दुनियां की जानकारी के लिए बनने वाले देशी-विदेशी वेबसाइटों में मनपसन्द भाषा का चयन करने के लिए दिये जाने वाले आप्शन के रूप में हिन्दी भाषा को सेलेक्ट करने का विकल्प बहुत ही कम दिखाई देता है। इसके लिए भारत सरकार के सूचना, प्रसारण और संचार मंत्रालय को भी पहल करना चाहिये। लेकिन देश भर में हिन्दी दिवस मनाने के नाम पर खानापूर्ति करने के अलावा यह मंत्रालय हिन्दी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग करने वाले लोगों को प्रोत्साहित करने या प्रचार-प्रसार के लिए जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं कर रहा है। 

मेरे ख्याल से हिन्दी भाषा के विकास के लिए सरकारी उदासिनता के कारण ही हिन्दी भाषी लेखकों और अनुवादकों के समक्ष भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई है। विदेशी भाषा सीखने और सिखाने के लिए दुनियां की सभी भाषाओं का सहारा लिया जाता है, लेकिन हिन्दीभाषी लोग विदेशी भाषा की शिक्षा हिन्दी भाषा में नहीं ले सकते हैं। इसका कारण है विदेशी भाषाओं को सिखाने वाले पुस्तकों के हिन्दी भाषा में अनुवाद, लेखन और प्रकाशन के कार्य के लिये विदेशी भाषा जानने वाले हिन्दीभाषी लेखकों और सरकार की उपेक्षा। 

वाकई में, हिन्दीभाषी लेखकों और अनुवादकों के प्रति सरकारी उपेक्षा के कारण ही हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान होने के बावजूद इंग्लिश या अन्य विदेशी भाषा नहीं जानने वाले लेखकों के समक्ष भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई है। यदि सरकार इस भाषा के विकास के लिए योजनाएं बना कर सही तरीके से लागू करवाये तो इस देश में बेरोजगारी की समस्या घट कर आधी हो जाएगी। इसके लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने घोषणा किया था कि "अब हिन्दी भाषा में भी मेडिकल कोर्स कर सकेंगे हिन्दीभाषी लोग"। 

हिन्दी भाषा के विकास के लिए मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान के द्वारा किये गये घोषणा को कार्यान्वित करने के लिए मध्य प्रदेश की सरकार ने पहल शुरू किया या नहीं, इसके बारे में मुझे प्रमाणिक जानकारी नहीं है। लेकिन सच्चाई यही है कि हमारी सभ्यता और संस्कृति का विकास हमारी मूल भाषा में ही अध्ययन-अध्यापन के द्वारा सम्भव है। यही कारण है कि इस देश के अलावा दुनियां के लगभग सभी विकसित देशों में वहाँ की मूल भाषा में ही पढ़ने-पढ़ाने का नियम है और इसे सख्ती के साथ लागू भी करवाया जाता है। लेकिन भारत सरकार के द्वारा अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति उदासीनता के कारण ही इस देश की बहुसंख्यक आबादी अपने ऊपर जबरन थोपे जाने वाले अंग्रेजी भाषा की समझ नहीं होने के कारण अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं और उसका खामियाज़ा जिन्दगी भर भुगतने के लिए मजबूर होते हैं।

जिस तरह से फ्रांस में पढ़ने के लिये अच्छी इंग्लिश जानने वाले लोगों को भी वहाँ की फ्रेंच भाषा सीखना पड़ता है, रूस में पढ़ने के लिए इच्छुक लोगों को वहाँ की रसीयन भाषा सीखना पड़ता है, चाइना में पढ़ने के लिये इच्छुक लोगों को वहाँ की स्थानीय भाषा मन्दारी सीखना पड़ता है, उसी तरह से भारत में पढ़ने वाले छात्रों को भी अपनी राष्ट्र भाषा हिन्दी में ही अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था करवाने के लिये हिन्दीभाषी लेखकों को प्रोत्साहित करना चाहिये। कम से कम इसका प्रयास तो करना ही चाहिए। यदि ऐसा हो गया तो यकीनन इस देश की दुर्दशा जरूर खत्म होगी। लेकिन महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय राज्यों में रहने वाले कुछ तथाकथित लोगों के द्वारा हिन्दीभाषी लोगों के विरोध को देखते हुए केन्द्र और राज्य सरकारें हिन्दीभाषी राज्यों में भी हिन्दी भाषा के विकास के मुद्दे पर मौन धारण कर रखा है। हिन्दी और हिन्दीभाषियों के विकास के लिए वहाँ की सरकारें भविष्य में भी कुछ करेगी ऐसा दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। यही कारण है कि हिन्दीभाषी लेखक और भाषाविद् आज 15 पैसे और 20 पैसे प्रति शब्द में भी कार्य करने के लिए मजबूर हो हैं। सच्चाई यही है इस देश के हिन्दीभाषी लेखकों की। इनकी पारिश्रमिक दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अशिक्षित लोगों से भी कम है। इसके कारण हिन्दी भाषा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। 

आज हिन्दी भाषा को अवैज्ञानिक और पिछड़े हुए लोगों की भाषा समझने वाले लोगों के कारण ही हिन्दीभाषी पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स और पुस्तकों को पढ़ने वाले लोगों की संख्या लगातार घटती जा रही है। नालन्दा ओपेन यूनिवर्सिटी की सिलेबस से सम्बन्धित हिन्दीभाषी पुस्तकों की घटिया भाषा शैली के कारण ही मैंने उसकी सभी पुस्तकों को कुलपति के समक्ष फाड़कर फेंकने के बाद उस संस्थान में नामांकित होने के बावजूद मैने वह कोर्स सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि पूरी शुल्क लेने के बाद भी उस यूनिवर्सिटी के पटना में स्थित शाखा के द्वारा मुझे इतना घटिया पाठ्य सामग्री दिया गया था जिसे देखते ही उस यूनिवर्सिटी के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा के स्तर को मैं समझ गया था। शिक्षा के नाम पर सिर्फ़ कागज के सर्टिफिकेट बेचने की दुकान मात्र बन कर रह गई है नालन्दा ओपन यूनिवर्सिटी जैसी संस्थायें। 

ट्राँसलेटर तो किसी रचना को अनुवादित कर के प्रकाशक को सौंप देता है, लेकिन उसकी दो-तीन चरणों में कम्पोजिंग और प्रूफ़रीडिंग के कार्य करने के बाद ही कोई पुस्तक या पत्र-पत्रिका प्रकाशित कर के पाठकों तक पहुंचाया जाता है। अनुवादक चाहे लाख अच्छा हो, जो पत्र-पत्रिका और पुस्तक बिना प्रूफ़रीडिंग करवाये प्रकाशित की जाती है, वह सुन्दर से सुन्दर ग्राफिक डिजाइनिंग और पैकिंग के बाद भी पाठकों का विश्वास नहीं जीत पाता है। पाठक का दिमाग कोरा काग़ज़ की तरह बिल्कुल खाली हो तो अधकचरे ज्ञान का सर्टिफिकेट पाकर भी खुद को ज्ञानी समझने लगता है। आजकल ऐसे ही ज्ञानियों का चलन है। क्योंकि उन्हें सही शिक्षा मिली ही नहीं है। अतः हिन्दीभाषी लेखकों, अनुवादकों और प्रूफ़रीडिंग के कार्य करने वाले लोगों को भी अच्छी पारिश्रमिक देने का प्रयास करना चाहिए। तभी लोगों को सही, शुद्ध और विश्वसनीय ज्ञान भण्डार वाले पुस्तक प्राप्त होंगे।


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